Friday, 19 June 2020

Mahabalipuram

...........*जिनालय दर्शन*...........
*महाबलीपुरम तीर्थ*
लॉकडाउन के चलते हमारी कोशिश है कि प्रतिदिन आपको घर पर प्रभु दर्शन करा सकें।
आज हम आपको *श्री महाबलीपुरम तीर्थ* के दर्शन 👏🏼करा रहे हैं........
इस तीर्थ का वीडियो एवम्ं तीर्थ की जानकारी हमें मूर्तिपूजक युवक महासंघ के संरक्षक श्री अनिल जी बैद से प्राप्त हुई है।

*अनिल जी की कलम से*🖌.... 
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जय जिनेद्र 👏🏼
.....अलौकिक तीर्थ (भाग ...).....

6 मई, 2001 को श्रेष्ठीवर्य श्री हरखचंद जी नाहटा, बीकानेर हाल दिल्ली परिवार का दीर्घकालीन संकल्प, 23वें तीर्थंकर परमात्मा पार्श्वनाथ व माँ पदमावती जिनालय के भूमि पूजन व 27 मई, 2001 को शिलान्यास से पूर्णता की ओर अग्रसर हुआ। इसका भूमिपूजन व शिलान्यास पूज्य उपाध्याय श्री मणिप्रभसागरजी म.सा. की निश्रा में हुआ। 
25 अप्रैल, 2002 को पूज्य आचार्य श्री विजय सुशील सूरीश्वरजी म.सा. एवं आचार्य श्री विजय जिनोत्तम सूरीश्वरजी म.सा. के हस्ते परमात्मा की प्रतिमा प्रतिष्ठा का महामहोत्सव सम्पन्न हुआ।  इस अवसर पर विभिन्न समुदाय के 4-4 आचार्य सह 46 साधू साध्वी भगवंत उपस्थित थे। संभवतया इतनी बड़ी संख्या में गुरुभगवंतों की उपस्थिति उत्तर भारत के किसी प्रतिष्ठा महोत्सव पर नहीं रही। उत्तर भारत में माँ पद्मावती की यहाँ सबसे बड़ी मूर्ति प्रतिष्ठित है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों से वरिष्ठ श्रावक-श्राविकाओं  का आगमन हुआ इसमें भारत की राजनैतिक वह फ़िल्म उद्योग के व्यक्ति भी शामिल हुए और प्रतिष्ठा बहूत ठाठ-बाठ और व महोत्सव पूर्वक संपन्न हुई। 
यहाँ अहिंसा बॉल लगी है जिसका अनावरण 26 अप्रैल, 2006 में पूज्य आचार्य श्री रत्नसुंदर सूरीश्वरजी म.सा. की उपस्थिति में दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री श्री साहिब सिंह जी वर्मा के द्वारा हुआ।
यहाँ पर चारों दादा गुरुदेव के दाह संस्कार स्थल से रज़ अर्थात मिट्टी लाकर उस पर संबंधित गुरुदेव के दर्शनीय चरण रखे गये हैं। इनका अनावरण 28 दिसंबर, 2008 में श्रद्धेय प्रवर्तिनी श्री चन्द्रप्रभा श्री जी म.सा. निश्रा में हुआ। 
इस तीर्थ की प्राकृतिक छटा अलौकिक व निराली है। दिल्ली के दक्षिण में मेहरोली क्षेत्र के भाटी गांव की पठारी भूमि पर अवस्थित यह तीर्थ दर्शनार्थियों को आत्म संतुष्टि प्रदान करता। इस तीर्थ पर यात्रियों की सात्विक इच्छाओं की पूर्ति होती है। 

तीर्थ का पता:- श्री पार्श्व-पद्मावती जिनालय महाबलीपुरम तीर्थ न्यास 
गाँव: भाटी, छत्तरपुर भाटी माइन्स रोड,
नई दिल्ली- 110074
दूरभाष: +91 7836072000
             +91 9310072400

कभी अवसर मिले तो महाबलीपुरम तीर्थ के  दर्शन का लाभ अवश्य लें।
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अनिल बैद 👏🏼
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उनसे प्राप्त वीडियो से पवित्र तीर्थ के 🙏 दर्शन का लाभ लें  !! 🙏
अनिल जी बैद की खूब खूब अनुमोदना! 
   🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
*श्री आत्मानन्द जैन सेवक मण्डल*

Godi parshwanath temple mumbai

मुंबई के महाराजा ऐसे श्री गोडीजी पार्श्वनाथ के जिनालय के दर्शन करीये - 
यह मंदिर २०७ वर्ष प्राचीन है । 
पायधुनी - आचार्य विजय वल्लभ चौक मुंबई २

परिचय :
                 मुंबई के जैन समाज कि अस्मिता के रुप में खड़ा श्री गोड़ीजी जिनालय, मुंबई के इतिहास को दर्शाता है। इस जिनप्रासाद के साथ मुंबई कि भव्यता का इतिहास जुड़ा है। बड़ी-बड़ी इमारतों और लोगों व आवागमन के साधनों से उभरता, आज का ४४० किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला मुंबई महानगर किसी जमाने में छोटे-बड़े सात टापुओं में विभक्त था। ई. स. १४७९ में पहली बार पुर्तगाली लोग समुद्री मार्ग से मुंबई आये थे। धीरे-धीरे उन्होंने इस टापु पर अपना अधिकार जमाया और इस प्रकार मुंबई पर पुर्तगाली शासन कि शुरुआत हुई। ई.स. १६०५ में पुर्तगाल कि राजकुमारी काइंग्लैण्ड के राजकुमार से विवाह हुआ। मुंबई को अपनी जागीर समझते पुर्तगाल ने उस विवाह कि खुशी में मुंबई इंग्लैंड के राजकुमार को दहेज में दे दिया गया। इसके बाद मुंबई ब्रिटिश हुकुमत कि अधीनता में आ गया। ई.स. १६९२ में दीप बंदरगाह से रुपजी धनजी नामक व्यापारी मुंबई आये थे। जैन व हिन्दुओं में मुंबई आने वाले वे पहले श्रेष्ठी थे। व्यापारिक सफलताओं के लिए मुंबई कि ख्याती दिनों दिन बढ़ती गई। साहसिक व्यापारियों कि यह पहली पसंद बन गई। उस जमाने में फोर्ट मुंबई का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र था। सभी बड़े व्यापारी वहीं निवास करते थे। वहां एक माईल के क्षेत्रफल में एक परकोटा (कोट) बनाया गया था। सुरक्षा के लिए उस परकोटे (कोट) के चारों ओर बड़ी खायी थी। उस परकोटे के तीन द्वार थे। बाजार गेट, चर्च गेट, एपोलो गेट। मुंबई में जैन समाज काइतिहास ई.स. १७४४ के आसपास प्रारंभ होता है। इस अरसे में यहां जैन श्रेष्ठियों के आगमन कासिलसिला शुरु हो गया था। अधिकांश जैनों ने फोर्ट के परकोटे (कोट) में ही अपना निवास बनाया। ई.स. १७५८ में महान् पुण्यशाली शेठ मोतीशाह के पिता शेठ अमीचंदभाई खंभात से अपने परिवार के संग मुंबई आये। यहां 7 वर्ष तक नौकरी करने के बाद उन्होंने अपने स्वतंत्र व्यवसाय कि भव्य शुरुआत कि।
आगे चलकर यहां कि मखमली माटी पर इस परिवार के कदमों के निशान यशस्वी जैन इतिहास का शिलालेख बन गये। शेठ अमीचंदभाई ने आराधना के लिए अपने घर में गृह जिनालय बनाया था। इसका प्रमाण श्री गोड़ीजी संघ के बहीखातों से मिलता है। ई.स. १७७५ के आस पास  जैन श्रेष्ठी कल्याणजी कानजी भी घोघा से मुंबई आये। इसके बाद शेठ अमीचंदभाई के महत्त्वपूर्ण योगदान से फोर्ट में मुंबई के सर्वप्रथम जिनालय का निर्माण हुआ। उस जिनालय के मूलनायक श्री गोड़ी पार्श्वनाथ भगवान थे। इस प्रकार गोड़ी पाश्र्वनाथ प्रभु से मुंबई के स्वर्णिम जैन इतिहास का पहला अध्याय शुरु हुआ और शेठ मोतीशाह के परिवार के साथ गोड़ी पार्श्वनाथ प्रभु कि प्रतिमा के संबंध भी अमर बन गये।
ई.स. १८०३ में फोर्ट में भयंकर आग लग गई। तीन दिन और तीन रात चली इस आग से करीब ४० लाख रुपयों का नुकसान हुआ। इसमें जैन, वैष्णव और ब्राह्मण समाज के भी ४०० से अधिक लकड़ी के मकान जलकर खाक हो गये। आग से हुई उस तबाही के कारण वहां के जिनालय के मूलनायक प्रभु श्री गोड़ी पाश्र्वनाथ को सुरक्षित पायधुनी-भुलेश्वर लाया गया। बस, इसी गोड़ी पाश्र्वनाथ प्रभु के पदार्पण के बाद समग्र विश्व के जैन समाज में पायधुनी 'गोड़ीजी' के सुहावने नाम से प्रसिद्ध हो गया। उस अरसे में आये भयानक समुद्री तुफान के कारण लोग भी फोर्ट छोड़कर पायधुनी – भुलेश्वर में बसने लगे। २९ जनवरी १८०६ को पायधुनी में गोड़ी पाश्र्वनाथ प्रभु काभव्य जिनप्रासाद बनाने काशुभ संकल्प लेकर शेठ मोतीशाह के बड़े भ्राता नेमचंदभाई ने मकानों कि खरीदी शुरु कि। ४ अक्टूबर १८११ को गोड़ीजी जिनालय के लिए अविचलदास गोविंदजी भंसाली से जगह खरीदकर नेमचंदभाई ने अपने नाम दस्तावेज रजिस्टर्ड करवाया। इसके बाद कुछ ही महिनों में जिनालय कानिर्माण संपन्न हो गया। इस पवित्र स्थापत्य को ईंट और चूने से बनाया गया। इसमें बड़ी मात्रा में महंगी लकड़ी का उपयोग किया गया। तल मंजिल में उपाश्रय और धर्मशाला तथा पहली मंजिल में काष्ठ का कलात्मक जिनमंदिर तैयार हुआ। छत, फर्श और स्तम्भ लकड़ी के बनाये गये। नयनरम्य पेइंटिंग्स और लकड़ी में उत्किर्ण कि गई नक्काशी ने गोड़ीजी जिनालय को अत्यंत भव्य बना दिया। फिर आई वो शुभ घड़ी, जब ई.स. १८१२ (विक्रम संवत् १८६८) में द्वितीय वैशाख सुद १०, बुधवार के पावन दिन प्रात: ८.३० बजे बड़े ही धूमधाम से प्रकट प्रभावी श्री गोड़ी पार्श्वनाथ प्रभु कि महा मंगलकारी प्रतिष्ठा हुई। मुंबई में साधना और समृद्धि के नये सूरज का उदय हुआ, जिसकि रोशनी से हजारों-लाखों आत्माएं धन्य बन गईं। कर्म के लेख लिखने मुंबई आने वालों ने धर्म के लेख भी बड़ी खूबी से लिखे। कि सी को यह पता नहीं था कि ई.स. १८१२ के मंगल मुहूर्त में प्रतिष्ठित होने जा रहे श्री गोड़ी पार्श्वनाथ प्रभु हजारों लाखों जिंदगीयों का आशीयाना बन जाएंगे। महान् प्रभावक आचार्य श्री विजय देवसूरिजी महाराज के श्रद्धानिष्ठ यति श्रीपूज्य देवेन्द्रसूरिजी के करकमलों से गोड़ी पाश्र्वनाथ काप्रतिष्ठापन हुआ। उसी पावन वेला में 'श्री विजय देवसूर संघ' कि स्थापना भी हुई। घोघा के कल्याणजी कानजी परिवार ने गोड़ी पाश्र्वनाथ प्रभु कि प्रतिष्ठा कामहान् लाभ प्राप्त कि या और जिनालय पर यशस्वी ध्वजारोहण शेठ मोतीशाह और उनके भ्राता नेमचंदभाई व देवचंदभाई ने कि या। उसी यादगार दिन से पायधुनी का'गोड़ीजी' श्री विजय देवसूर तपागच्छ संघ कि उज्ज्वल परंपरा और विशुद्ध समाचारी काप्रमुख केन्द्र है। जहां कि नीतियों और व्यवस्थाओं काअनुसरण देश-विदेश के सभी तपागच्छ संघ आज भी करते आ रहे हैं।
विशिष्टा :
शेठ मोतीशाह को श्री गोड़ी पार्श्वनाथ प्रभु पर अपार श्रद्धा थी। उन्होंने अपने पुत्र खेमचंदभाई के नाम बनाई वसीयत में भी श्री गोड़ी पाश्र्वनाथ भगवान कि कृपा कातीन बार उल्लेख कि या है। भायखला में आज जहां श्री आदिनाथ प्रभु काभव्य जिनप्रासाद है, वहां कभी शेठ मोतीशाह काउद्यान था। प्रारंभिक वर्षों में शेठ मोतीशाह भायखला से पैदल चलकर प्रतिदिन श्री गोड़ी पाश्र्वनाथ भगवान कि पूजा-भक्ति के लिए के लिए पायधुनी आया करते थें। उन्होंने भायखला के श्री आदीश्वर जैन मंदिर के पिछवाड़े स्थित अपनी जमीन कातीसरा हिस्सा भी श्री गोड़ी पाश्र्वनाथ जिनालय, पायधुनी को अर्पित कि या था। ऐसे धर्मनिष्ठ कर्मयोगी शेठ मोतीशाह काजब ५४ वर्ष कि आयु में ई. स. १८३६ में स्वर्गवास हुआ तो उनके सम्मान में मुंबई के सभी बाजार और देश के अनेक बड़े बाजार बंद रहे थे। शेठ मोतीशाह कि तरह ही घोघा निवासी शेठ कल्याणजी कानजी और उनके सुपुत्र त्रिकमभाई व दीपचंदभाई (उर्फे बालाभाई, शत्रुंजय तीर्थ पर बालावसही टूंक के निर्माता) को भी श्री गोड़ी पार्श्वनाथ प्रभु के प्रति अपार श्रद्धा-भक्ति थी। वे सभी श्री गोड़ीजी संघ के कार्यों में विशेष रुची लेते थें। शेठ कल्याणजी कि सुश्राविका कुंवरभाई, जो रामकोर काकि के लोकप्रिय नाम से प्रसिद्ध थीं, गोड़ीजी संघ में श्राविकावर्ग काप्रतिनिधित्व करती थी। उस जमाने में श्री गोड़ीजी संघ के संचालक में श्रद्धानिष्ठ उदार हृदयी रामकोर काकि का महत्वपूर्ण योगदान हुआ करता था। इसी तरह पाटण के श्रेष्ठी पे्रमचंद रंगजी और मांगरोल के श्रेष्ठी ताराचंद मोतीचंद भी मुंबई के प्रथम पंक्ति के प्रभावशाली श्रावक थे। ये सभी श्री गोड़ीजी संघ के कार्यों में विशेष रुची लेते थे। शेठ कल्याणजी कि सुश्राविका कुंवरबाई, जो रामकोर काकिके लोकप्रिय नाम से प्रसिद्ध थीं, गोड़ीजी संघ में श्राविक वर्ग काप्रतिनिधित्व करती थी। उस जमाने में श्री गोड़ीजी संघ के संचालन में श्रद्धानिष्ठ उदार हृदयी रामकोर काकि कामहत्त्वपूर्ण योगदान हुआ करता था। इसी तरह पाटण के श्रेष्ठी पे्रमचंद रंगजी और मांगरोल के श्रेष्ठी ताराचंद मोतीचंद भी मुंबई के प्रथम पंक्ति के प्रभावशाली श्रावक थे। ये सभी गोड़ीजी के प्रति विशेष अहोभाव रखते थे। शेठ ताराचंद मोतीचंद ने तो ई.स. १८१० में हिन्दु रसोईदार व अपने विश्वसनीय नौकरों को साथ लेकर व्यापार हेतु चीन कि यात्रा भी कि थी। वे आठ वर्ष चीन में रहे थे। इस दौरान अपनी आराधना के लिए उन्होंने चीन के केन्टोन शहर में श्री पाश्र्वनाथ प्रभु कि पंचधातु कि एक मनोहारी प्रतिभा भी स्थापित कि थी। ई.स. १८७४ तक वह जिन प्रतिमा वहां सुरक्षित थी। शेठ मोतीशाह के मामा खंभात के श्रेष्ठी परतापमल जोइतादास और घोघा के श्रेष्ठी फुलचंद कपुरचंद भी श्री गोड़ी पाश्र्वनाथ प्रभु के परम भक्त थें। गोड़ीजी के लिए उनके भी उल्लेखनीय योगदान रहे हैं। इन दोनों श्रेष्ठियों ने शत्रुंजय गिरी पर मोतीशाह कि टूंक में जिनालयों का निर्माण भी करवाया था। मुंबई के शाह सोदागर शेठ श्री केशवजी नायक भी श्री गोड़ी पाश्र्वनाथ प्रभु के अनन्य उपासक थे। व तन-मन-धन से गोड़ीजी कि सेवा में सदैव तत्पर रहते थें। उन्होंने शत्रुंजय गिरी पर टूंक कानिर्माण कर ऐतिहासिक सुकृत्य किया था। शेठ किकाभाई प्रेमचंद भी श्री गोड़ीजी देवसूर संघ से जुड़ा एक यशस्वी नाम है। अनेक वर्षों तक वे इस संस्थान के पदाधिकारी रहे। ब्रिटेन कि महारानी ने उनको 'सर ' कि उपाधि से नवाजा था। उनके नाम से ही गुलालवाड़ी कानामकरण 'किकास्ट्रीट' के रुप में हुआ।
अनेक राजनीतिक और प्रशासनिक मामलों में जैन समाज के प्रतिनिधि बनकर उन्होंने सफलताएं प्राप्त कि थी। ज्यों – ज्यों मुंबई में गोड़ीजी के भक्त बढ़ते गए, त्यों-त्यों गोड़ीजी कि आमदनी भी बढ़ती गई। लेकि न आमदनी को इकठ्ठा करने के बजाय गोड़ीजी ने देश भर के छोटे-बड़े जिनालयों के जीर्णोद्धार हेतु सहयोग देना शुरु कि या। योगदान कि यह महान परंपरा करीब १७२ वर्षों से अविरत जारी है। गोड़ीजी के सान्निध्य में धर्म-आराधना के साथ-साथ मानवता के कार्य भी निरंतर होते रहे हैं। ई.स. १८९६ में मरकि रोग के भयंकर उपद्रव के समय गोड़ीजी के उपाश्रय में राहत केन्द्र खोलकर बेहतर सेवाएं दी गई थी। उसके बाद भी जब-जब भूकंप, अतिवर्षा या महामारी कादुर्भाग्यपूर्ण समय आया तो गोड़ीजी में मानव-सेवा कि ज्योत सबसे पहले प्रज्ज्वलित हुई। सांप्रदायिक दंगो से प्रभावित बेसहारा लोगों के लिए यहां कई बार महिने-महिने तक भोजन-पानी कि व्यवस्थाएं कि गई। ई.स. १९४८ में तो गोड़ीजी में बाकायदा मानव राहत समिति काविधिवत गठन कर दिया गया। ईसा कि १८वीं शताब्दी के उत्तराद्र्ध में सौराष्ट्र के वंथली शहर से शेठ देवकरण मूलजी मुंबई आये थे। फेरी करके वे टोपियों बेचने काकाम करते थे। आगे जाकर वे कपड़े कि ६ मीलों के सेलिंग एजेंट बन गये थें। उस जमाने में उन्होंने सात लाख रु. कादान कि या था। मृत्यु से पूर्व उन्होंने शिक्षा, चिकि त्सा, धर्म और समाज-कल्याण क कार्यों के लिए १४ लाख रुपयों काट्रस्ट बनाकर सभी को उदारता व दानधर्म कि प्रेरणा दी थीं। उसी ट्रस्ट के आधार पर मलाड़ (पश्चिम) में श्री जगवल्लभ पाश्र्वनाथ काकलात्मक जिनालय, उपाश्रय और साधर्मिक बन्धुओं के निवास तैयार हुए।
५ अप्रैल १९३४ को वही ट्रस्ट श्री गोड़ीजी देवसूर संघ को सुपुर्द कर दिया गया। आज गोड़ीजी के तत्त्वावधान में मलाड़ का श्री देवकरण मूलजी जैन ट्रस्ट अपना स्वतंत्र प्रभार व्यवस्थित संभाल रहा है। स्वतंत्रता सेनानी और जाने-माने साहित्यकार श्री मोतीचंद गीरधरलाल कापडिया ने श्री गोड़ीजी देवसूर संघ के संचालन और प्रारंभिक संविधान के निर्माण में महती भूमिकानिभाई थी। समय काप्रवाह चलता रहा। गोड़ीजी के आसपास और मुंबई में बड़ी मात्रा में जैन परिवारों कानिवास होता गया। एक ओर धन कि समृद्धि बढ़ती गई दूसरी ओर धर्म कि सरिता भी बहती गई। ई.स. १९०६ में शिरोमणी पन्यास प्रवर श्री कमलविजयजी महाराज कागोड़ीजी-पायधुनी में पहला वर्षावास हुआ। इसके बाद अनेक नामी-अनामी साधु-संतों ने ज्ञान कि गंगा बहाकर गोडीजी संघ को पल्लवित कि या। ई.स. १९३६ के वर्षावास में पंन्यास क्षमाविजयजी ने तिथी के संबंध में अलग प्ररुपणा कि। बावजूद इसके गोड़ीजी के श्री विजय देवसूर संघ ने अपनी समाचारी के अनुसार ही पर्युषण महापर्व कि आराधना कर परंपरा को जीवंत रखा। श्री गोड़ीजी भक्तियोग और तपयोग के साथ-साथ ज्ञानयोग कि साधना काभी प्रमुख केन्द्र रहा है। यहां साधु-साध्वीजी के विद्याभ्यास हेतु विशेष व्यवस्थाएं कि गई थीं। इतना ही नहीं, यहां बाल-युवा-कन्या और महिला वर्ग के लिए भी अलग-अलग धार्मिक पाठशालाएं खोली गईं। तत्वज्ञान, न्याय, व्याकरण और संस्कृत-प्राकृत भाषा के अध्ययन हेतु पाठशालाएं चलाकर गोड़ीजी ने धर्म कि परंपराओं को मजबूत करने कागौरवपूर्ण कार्य कि या। आचार्य श्री विजय धर्मसूरिजी महाराज के गोड़ीजी में ऐतिहासिक वर्षावास हुए। उन्होंने जिनालय के जीर्णोद्धार और उपाश्रय के नवनिर्माण कि महती प्रेरणा दी। गोडीजी के १५० वर्षो काभव्य महोत्सव भी आप के सान्निध्य में मनाया गया। आचार्य श्री विजय नेमीसूरिजी महाराज के अनेक आचार्य भगवंतों ने भी वर्षावास कर सुकृत्यों कि प्रेरणा दी और संघ को उपकृत कि या। आचार्य श्री सागरानंदसूरिजी महाराज के चातुर्मास में गोड़ीजी मित्र मंडल कि स्थापना हुई। इस मंडल ने संघ के अनेक छोटे-बड़े कार्यो में सहभागिता निभाई।
आचार्य श्री विजय वल्लभसूरिजी महाराज का चातुर्मास समाजोद्धार के कार्यो के लिए आज भी याद किया जाता है। कालांतर में लकड़ी का बना जिनालय जीर्ण हो गया। बड़े जिन प्रासाद कि आवश्यकता भी सतत महसूस होने लगी। अंत: मूलनायक श्री गोड़ी पाश्र्वनाथ प्रभु कि प्रतिमा को उत्थापित किए बगैर देवविमान तुल्य श्वेत संगमरमरीय पाषाण के देदिप्यमान जिनालय का निर्माण हुआ। उसका भव्य अंजनशलाका-प्रतिष्ठा महोत्सव विक्रम संवत् २०४५ (ई.स.१९८९) में आचार्य प्रवर श्री सुबोधसागरसूरीश्वरजी महाराज के सान्निध्य में भव्यता से संपन्न हुआ। इसके सोलह वर्ष बाद विक्रम संवत् २०६१ (ई.स. २००५) में आचार्य श्री सूर्योदयसागरसूरीश्वरजी महाराज के करकमलों से स्वर्ण पाश्र्वनाथ भगवान के अंजनशलाका-प्रतिष्ठा महोत्सव कि ऐतिहासिक संयोजना हुई। अब स्वनामध्यन्य महापुरुष, आचार्य श्री पद्धसागरसूरिजी महाराज के सान्निध्य में श्री गोड़ीजी का१८ दिवसीय द्विशताब्दी महामहोत्सव एक अविष्मरणीय आयोजन है। इस स्मृति को जीवंत रखेने के लिए श्री विश्वमंगल नवग्रह पाश्र्वनाथ भगवान व श्री शुभंस्वामी गणधर कि प्रतिमा कि अंजनशलाका-प्रतिष्ठा होन जा रही है। इस अवसर पर जसपरा निवासी मातुश्री गजराबेन गीरधरलाल जीवणलाल परिवार द्वारा १,३५,००० परिवारों में मीठाई कावितरण और लगभग ८ लाख ४० हजार मूर्तिपूजक जैन साधर्मिक भाई-बहनों काश्रीसंघ स्वामीवात्सल्य जैन इतिहास कास्वर्णिम अध्याय लिखने जा रहा है। यह सुकृत्य कर जसपरा, सौराष्ट्र के गजराबेन परिवार ने अपनी आने वाली पीढियों को भी अमर बना दिया है। 

Album link 

Logassa sutra

"जैन संदेश" 
    "लोगस्स सूत्र का हिन्दी मे अनुवाद "
लोगस्स                =   लोक में
उज्जोअ               =  प्रकाश
गरे                       =   करने वाले
धम्म                     =   धर्म रुपी
तित्थ                   = तीर्थ का
यरे                      = प्रवर्तन करने वाले
जिणे                   = विजेता (राग द्वेषादि के)
अरिहंते                = त्रैलोक्य पूज्यों की
कित्तइस्सं             = स्तुति करुंगा
चउवीसं पि           = चौबीसोें
केवली                 = केवलियों की
उसभं                  = श्री ऋषभदेव
अजिअं                = श्री अजितनाथ को
च                        = और
वंदे                      = मैं वंदन करता हुँ
संभवं                   = श्री संभवनाथ 
अभिणंदणं            = श्री अभिनंदन स्वामी को
च                        = और
सुमइं                    = श्री सुमतिनाथ को
च                         = और
पउमप्पहं               = श्री पद्मप्रभ स्वामी को
सुपासं                   = श्री सुपार्श्वनाथ को
च                         = और
जिणं                     = जिनेश्वर को
चंदप्पहं                  = श्री चंद्रप्रभ 
वंदे                        = मैं वंदन करता हुँ 
सुविहिं                   = श्री सुविधिनाथ
च                          = यानि
पुप्फदंतं                 = श्री पुष्पदंत को
सीअल                  = श्री शीतलनाथ
सिज्जंस                = श्री श्रेयांसनाथ
वासुपुज्जं               = श्री वासुपूज्य स्वामी को
च                          = और
विमलं                     = श्री विमलनाथ 
मणंतं                     = श्री अनंतनाथ 
च                         = और
जिणं                     = जिनेश्वर को
धम्मं                      = श्री धर्मनाथ
संतिं                      = श्री शांतिनाथ को
वंदामि                   = मैं वंदन करता हुँ
कुंथुं                       = श्री कुंथुनाथ 
अरं                        = श्री अरनाथ
च                          = और
मल्लिं                    = श्री मल्लिनाथ को
वंदे                        = मैं वंदन करता हुँ
मुणि - सुव्वयं          = श्री मुनिसुव्रत स्वामी
नमि                       = नमिनाथ को
जिणं च वंदामि          = जिनेश्वर को में वंदन करता हुँ
रिट्ठ-नेमिं                 = श्री अरिष्ट नेमि (नेमिनाथ) को
पासं                       = श्री पार्श्वनाथ
तह                         = तथा
वद्धमाणं च               = श्री वर्धमान स्वामी (महावीर) को
एवं                           = इस प्रकार
मए                           = मेरे द्वारा
अभिथुआ                  = स्तुति किये गये
विहुय                         = से रहित
रय                             = रज
मला                           = मल
पहीण                         = मुक्त
जर                             = वृद्धावस्था
मरणा                          = मरण से
चउ-वीसं पि                  = चौबीसों
जिणवरा                       = जिनेश्वर
तित्थ                           = तीर्थ
यरा                              =प्रवर्तक
मे                                = मेरे उपर
पसीयंतु                        = प्रसन्न हों
कित्तिय                        = कीर्तन
वंदिय                           = वंदन
महिया                         = पूजन किये गये हैं
जे                               = जो
ए                                = ये
लोगस्स                       = लोक में
उत्तमा                         = उत्तम हैं
सिद्धा                          = सिद्ध हैं
आरुग्ग                        = आरोग्य के लिए
बोहिलाभं                    = बोधि लाभ
समाहि -वरं                  = भाव समाधि
मुत्तमं                          = उत्तम
दिंतु                            = प्रदान करें
चंदेसु                          = चंद्रो से
निम्मल                        = निर्मल 
यरा                             = अधिक
आइच्चेसु                     = सूर्यो से
अहियं                         = अधिक
पयासयरा                     = प्रकाशमान
सागर                          = सागर से
वर                              = श्रेष्ठ
गंभीरा                         = गंभीर
सिद्धा                           = सिद्ध भगवंत
सिद्धिं                          = सिद्धि
मम                              = मुझे
दिसंतु                          = प्रदान करें    
               सभी भाई-बहिनों को सादर नमस्कार
लोगस्स सूत्र को ज़्यादा से ज्यादा 
शेयर जरूर करे !
                जयजिनेन्द्र सा !..

9 smaran ka mahattva

जैन शासन मे नव स्मरण का महत्व 

         जैन शास्त्र में नव स्मरण का महात्मय सर्वाधिक बताया है, ज्ञानी गुरूभंगवतो ने इसे 'सुपर पावर टोनिक' का नाम भी दीया है । नवस्मरण का स्वाध्याय करने मात्र से मन में प्रसन्नता पैदा होती हैं । क्षुद्र उपद्रवो इत्यादि दूर हो जाते है । वातावरण अनुकूल बनता है , आपत्तियाँ दुर हो जाती हैं । समाधि समता मिलती है ... पूर्वाचार्यो  ने नवस्मरण में बहुत ही सुंदर मंत्रो का समावेश किया है।

    नवस्मरण सूत्र   और रचियता      
१ महामंत्र नवकार................   शश्वत
२ ऊवसग्गरं..............भद्रबाहु स्वामी
३ संतिकर............... मुनिसुंदर सूरी
४ तिजय पहुत.......... मानदेव सूरी
५ नमिऊण............... मानतुंग सूरी
६ अजित शान्ति........ नंदीषेण सूरी
७ भक्तामर............... मानतुंग सूरी
८ कल्याण मंदिर......सिध्द सेन दिवाकर सूरी
९ बृहत शांति............ शिवादेवी माता

जैन शासन के नवस्मरण सुत्र  :-

१. श्री नवकारमंत्र

२. उवसग्गहरं स्तोत्र

३. श्री संतिकरम स्तोत्र

४. श्री तिजयपहुत्त स्तोत्र

५. श्री नमिउण स्तोत्र

६. अजिशांति स्तोत्र

७. भक्तामर स्तोत्र

८. कल्याण मंदिर स्तोत्र

९. बृहद शांति स्तोत्र

Pratima ke darshan kyo

हमें प्रतिमा के दर्शन क्यों करने चाहिए
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हमें प्रतिमा के दर्शन क्यों करने चाहिए ये सवाल ऐसा है जैसे कि किसी प्यासे इंसान से पूछा जाए कि पानी क्यों पीना है।
अमिय भरी मूर्ति रची ,उपमा न घटे कोय।शांत सुधा रस झीलती र निरखत तृप्ति न होय।
हे प्रभो!
इस जगत में यदि आपकी प्रतिमा नहीं होती तो
हम आपके स्वरूप को कैसे जान पाते?
जिन प्रतिमा से तो प्रभु के स्वरूप का भान होता है।
अतः
प्रभु के समान 
ही प्रभु प्रतिमा से भी
हमारा कल्याण होता है।
प्रभु की शांत मूर्ति के दर्शन से तथा उनके गुणगान में लीन होने से चित्त में दुष्ट भाव तथा बुरे विचार टिक नहीं सकते। श्री वीतराग देव की शांत मुद्रा के दर्शन के साथ ही रोम रोम में प्रेम उमड़े बिना नहीं रहता 
वीतराग देव की आराधना मुख्यतया उनकी प्रतिमा के द्वारा ही संभव है।
अरिहंत परमात्मा की भक्ति का सर्व श्रेष्ठ उपाय उनकी प्रतिमा की भक्ति करना है।
अरिहंत की प्रतिमा अरिहंत स्वरूप ही है।उनकी प्रतिमा के दर्शन करने से अपनी आत्मा का उपयोग भी अरिहंताकार बनता है।और अरिहंताकार उपयोग में लीन बनी आत्मा आरहंत्य  स्वरूप का साक्षात् अनुभव करती है।
रूपी आलंबन बिना अरूपी का ध्यान शक्य नहीं।
सर्वश्रेष्ठ रूपी आलंबन अरिहंत परमात्मा का है और उस आलंबन के लिए अरिहंत की प्रतिमा ही श्रेष्ठ उपाय है।
प्रतिमा सिर्फ प्रतिमा ही नहीं होती,वो स्वरूप ही होती है भगवान का। उसमें भगवान के गुणों का आरोपण किया जाता है।प्रतिमा को देखकर मन में वीतरागता के भाव जागृत होते हैं।
भगवान के गुणों का स्मरण तथा ध्यान करने करने के लिए जिन मंदिर में जिन प्रतिमा की स्थापना की जाती है।
श्री जिन की मूर्ति देखकर विचार पैदा होता है ,' अहो!यह मुख कितना सुन्दर है कि जिसके द्वारा किसी के लिए भी अपशब्द नहीं बोला गया,जिससे कभी हिंसक,कठोर अथवा कड़वे वचन नहीं निकले।उसमे रही जीभ से रसेंद्रिय के विषयों का कभी भी राग द्वेष से सेवन नहीं किया गया,परन्तु उस मुख द्वारा धर्मोपदेश देकर अनेक भव्य जीवों को इस संसार सागर से पार उतारा गया है।इसलिए ये मुख तो हजारों बार धन्यवाद का पात्र है।"
भगवान की नासिका द्वारा सुगंध या दुर्गंध रूप घ्रा नेंद्रिया के विषयों का राग अथवा द्वेष पूर्वक उपभोग नहीं किया गया।
इन चक्षुओं द्वारा पांच वर्ण रूप विषयों का पल भर के लिए भी राग द्वेष पूर्वक उपभोग नहीं किया गया।केवल वस्तु स्वभाव तथा कर्म की विचित्रता का विचार कर भगवान के नेत्र सदा समभाव में रहते हैं।
इन दोनों कानों के द्वारा विचित्र प्रकार की राग रागीनियो का राग पूर्वक श्रवण नहीं किया गया,अपितु मधुर अथवा कटु जैसे शब्दों को राग द्वेष रहित होकर सुना।
इस शरीर को किसी जीव की हिंसा अथवा अदत्त ग्रहण आदि का दोष नहीं लगा।इसका उपयोग केवल जीव रक्षा निमित्त तथा सभी को सुख मिले ,उसी ढंग से हुआ है ।इस देह ने गांव गांव विहार कर अनेक जीवों के सांसारिक बंधनों को तोड़ा है।तथा सभी कर्मो का क्षय करके केवल ज्ञान तथा केवल दर्शन को प्रगट किया है।
ऐसे अनंत उपकारी प्रभु की शांत मुद्रा देखकर अन्तःकरण में ये भावना उत्पन्न होती है इनकी यथा शक्ति भक्ति करना मेरा परम कर्तव्य है।यदि मैं प्रभु की भक्ति करती हूं तो मै स्वयं तिरने के साथ साथ अन्यों को भी तिराने में निमित्त बनूंगी क्योंकि मेरी भक्ति देखकर दूसरे लोग भी उसका अनुसरण करेंगें।
प्रतिमा के दर्शन होते ही नमो जिनानम बोलते हैं तभी से हमारे अंदर विनय गुण प्रगट होता है।
प्रभु के सामने जाते ही मन में भावना आती है हे प्रभु आप राजा थे, चक्रवर्ती थे फिर भी आपने सब त्याग दिया और मैं तुच्छ प्राणी हूं जो कुछ ना होते हुए भी आपके पथ पर नहीं चल पा रही हूं।प्रभु मै कब आप जैसी बनूंगी,कब संसार से भव भ्रमण समाप्त होगा।इस प्रकार
प्रभु तो अनेक गुणों से परिपूर्ण हैं और मै सभी प्रकार के दुर्गुणों से परिपूर्ण हूं इसी कारण इस संसार रूपी वन में अनंत काल से भटक रही हूं 
आज मेरे  भाग्योदय से मुझे भगवान की प्रतिमा के दर्शन हुए,प्रतिमा के दर्शन होते ही मन मयूर नाच उठता है,मन करता है कि वहां बैठकर प्रभु को निहारती रहूं और भगवान से बात करती रहूं,आंखो से प्रभु के प्रेम की अश्रु धारा बहती रहती है , हे प्रभु कब मेरे कर्म क्षय होंगे और कब मैं आप जैसी बनूंगी।
हे निरंजन!निराकार! निर्मोह!अजर!अमर!अकलंक! सिद्ध स्वरूपी! सर्वज्ञ!वीतराग!आपके गुणों का गुणगान करते हुए मै आपकी स्तुति करती हूं।
  आपकी स्तुति करते हुए मुझे अपने अवगुण समझ आए ।अब मैं अपने दुर्गुणों को छोड़ने का प्रयत्न करूं और आपके दिखाए पथ पर चलूं।
यह देवाधिदेव श्री वीतराग की मूर्ति है ,इनके अज्ञान आदि दोषों का नाश हो चुका है ,ये अनंत गुण वाले हैं।ये देवेंद्रो से भी पूजित हैं,तत्वों का उपदेश देने वाले हैं,मोक्ष की प्राप्ति उन्हें हो चुकी है,ये संसार सागर से तिर चुके हैं,सर्वज्ञ,सर्व - दर्शी हैं,दया के सागर हैं,परिषह तथा उपसर्गों की सेना को भगाने वाले हैं,रागादी से रहित हैं,ऐसा ज्ञान जैसे जैसे होता जाता है,वैसे वैसे प्रतिमा के दर्शन करते समय उन गुणों का ज्ञान तथा स्मरण दृढ़तर बनता जाता है।
इस प्रकार शुभ भाव से प्रतिमा के दर्शन स्तुति करते हुए जीव अपने अशुभ तथा क्लिष्ट कर्मों का नाश करता है। और समकित की शुद्धि होती है।
धन धन श्री अरिहंत ने रे,जेने ओलखाव्यो लोक सलुना। ए जिन ने दर्शन बिना र,जन्म गुमाव्यो फोक सालुना

आशा कोठारी
ग्वालियर

Wednesday, 3 June 2020

Anant kay lakshan

अनंतकाय के १२ लक्षण परिज्ञान

प्रश्न- अनत काय का क्या मतलब है ?
उत्तर- जिसमें एक छोटे से शरीर में अनंत जीव रहते हैं, प्रतिक्षण जन्मते मरते रहते हैं, वे अनंत काय के पदार्थ कहे जाते हैं ।

प्रश्न- छोटे शरीर से क्या आशय है ?
उत्तर- एक सूई की नोक पर आवे उतने अंश में असंख्य गोले (वृत) होते है, प्रत्येक गोले में असंख्य प्रतर होते हैं, प्रत्येक प्रतर में असंख्य शरीर होते हैं और उस छोटे से प्रत्येक शरीर में अनंत अनंत जीव होते हैं ।

प्रश्न - ये अनंतकाय क्या कंद मूल ही होते है ?   
उत्तर- कंदमूल तो अनंत काय होते ही है, इसके अतिरिक्त भी अनेक अनंतकाय होते है । 
यथा- १. जहाँ भी जिसमें भी, फूलण (काई) होती है, वह अनंतकाय है ।

२. जिस वनस्पति के पत्ते आदि किसी भी विभाग में दूध निकलने की अवस्था है जैसे- आकडे का पत्ता, कच्ची मुगफली (सिंग) आदि ।

३. जो कोई भी हरी तरकारी या वनस्पति का हिस्सा तोडने से एक साथ तट्ट ऐसी आवाज करते टूटे और सम कट जाय जैसे भींडी ककड़ी आदि।

४. जिस वनस्पति को गोलाकार चक्कु से काटने पर उसकी सतह पर रजकण सरीखे जलकण हो जाय ।

५. जिस वनस्पति की छाल भीतरी तने से जाडी हो वह तना अनतकाय ।

६. जिस पत्तों में नर्से न दीखें ।

७. जो कंद और मूल भूमि के अंदर पक कर निकलते हैं ।

८. सभी वनस्पति की कच्ची जड़े ।

९. सभी वनस्पति की कच्ची कौपल ।

१०. कोमल एवं नसे न दिखने वाली पंखुडियों वाले फूल ।

११. भीगाये हुए धान्यों में तत्काल निकले हुए  अंकुर।

१२. कच्चे कोमल फल यथा- इमली आदि, मंजरी आदि ।

इत्यादि लक्षण वनस्पति के किसी भी विभाग में दिखते हो वे सभी विभाग अनंत काय होते हैं । विशेष जानकारी एवं प्रमाण के लिये पुष्प ९
का वनस्पतिज्ञान सम्बन्धी परिशिष्ट देखना चाहिए अथवा पन्नवणा सूत्र का अध्ययन करना चाहिये ।

कंदमूल कुछ नाम इस प्रकार है- १ आलु २.रतालू ३.सूरणकंद ४.वज्रकद ५. हल्दी ६. अदरक 
७. कादा (प्याज) ८. लसण ९. गाजर १०.
मूला ११. अरबी १२. शकरकंद इत्यादि ।

SuParshwanath history

देवाधिदेव 7 वे तीर्थंकर श्रीसुपार्श्वनाथ भ.

श्री सुपार्श्वनाथजी के पूर्व भव
🥁1.धातकीखंड के पूर्व विदेह में सीता नदी के उत्तर तट पर सुकच्छ देश के क्षेमपुर नगर के राजा नंदीषेण ने गुरु अर्हंनंदन के पास दीक्षा ले कर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया।

2.राजा नंदिषेण का जीव सन्यास से मरण कर मध्यम ग्रैवेयक के सुभद्र नामक मध्यम विमान में अहमिन्द्र हुआ।

3 काशी देश की बनारस नगरी में महाराजा सुप्रतिष्ठ की रानी पृथ्वीषेणा के गर्भ में भाद्रपद शुक्ला 6 के दिन अहमिन्द्र का अवतरण हुआ।🥁

⛺️ तीर्थंकर भगवानों के गर्भ,जन्म,दीक्षा, केवलज्ञान,मोक्ष पांचो कल्याणकके अवसर  जगतके जीवो के लिए अत्यन्त कल्याणकारी और मंगलकारी होते हैं।समस्त देव और मनुष्य इन अवसरोंपर विशेष प्रकार का उत्सव आराधना करते है।⛺️

तीर्थंकर भ.श्री सुपार्श्वनाथका जीवन परिचय

💚जन्मस्थान:जम्बूद्वीप के भारतवर्ष सम्बन्धी काशी देशकी बनारस नगरी,पिता:इश्वाकुवंशी राजा सुप्रतिष्ठ,
माता:रानी पृथ्वीषेणा, मध्य ग्रेवेयक से अहमिन्द्र अवतीर्ण हुए,गर्भकल्याणक तिथि:भाद्रपद शु.6,गर्भनक्षत्र:विशाखा

🌟जन्मकल्याणक तिथि:ज्येष्ठ शु.12,जन्म नक्षत्र: विशाखा,  

  श्री सुपार्श्वनाथ भगवान का जन्म कल्याणक महोत्सव
 🌞श्री सुपार्श्वनाथजी के जन्म के समय तीनो लोकों में उद्योत, आनंद और सुख का प्रसार हुआ।अद्वितीय, सुन्दर, अपूर्व, अनुपम प्राकृतिक वातावरण में शीतल, मंद, सुगंधित वायु बहने लगी। पृथ्वी धन-धान्य से समृध्द हुई। प्रसन्न दिशामंडल, मनोहर आकाशमंडल में देव-दुंदुभि बजने लगी । वायुदेवने भुमंडल की शुध्दि की। मेघकुमारने गंधोदक की वृष्टि की। ऋतुदेवीने पंचवर्णी पुष्पोकी वर्षा की।

🌞स्वर्ग के इन्द्रों के आसन कंपायमान हुये। देवों के यहाँ घंटा,सिंहनाद, भेरी और शंख अपने आप बजने लगे। सभी देवोंने जिनबालक सुपार्श्वनाथ भगवानको नमस्कार किया और उनकी स्तुति की।

⭐️सौधर्म इंद्र की आज्ञा से सात प्रकार की देव सेना जन्म- नगरी बनारस में आई। सौधर्म इंद्र-इंद्राणी ने ऐरावत हाथी पर सवार होकर जन्मनगरी बनारस की 3 परिक्रमा की। सौधर्म और ईशान इंद्र ने क्षीर समुद्र के जल के 1008 कलशोंसे जिनबालक का अभिषेक महोत्सव किया। सौधर्म इंद्र ने हजारो नेत्रों से जिनबालक केसौम्य छवि का अवलोकन किया और भगवान का 'सुपार्श्वनाथ' नामकरण किया।

अन्य जानकारी:-
चिन्ह:स्वस्तिक,आयु:20 लाख पूर्व, 
कुमारकाल:5लाखपूर्व,राज्यकाल:14 लाख पूर्व+20पूर्वांग,
शरीर ऊंचाई:200 धनुष, शरीर वर्ण:हरित, चिन्ह:स्वस्तिक

💙वैराग्यकारण:ऋतु परिवर्तन पतझड़,
दीक्षा कल्यांणक तिथी ज्येष्ठ शु.12, दीक्षा समय:पूर्वाह्न, नक्षत्र:विशाखा,दीक्षा वन:सहेतुक,दीक्षावृक्ष:श्रीष,
दीक्षोपवास: 2(बेला), दीक्षाकाल:पूर्वाह्न,
सहदिक्षित मुनि:1000, दीक्षा पालखी:सुमनोगति, दीक्षास्थान:काशी,प्रथम आहार दाता:महेन्द्रदत्त,
प्रथम आहार का स्थान:सोमखेट नगर,छद्मस्थकाल:9 वर्ष

🌳तीर्थंकर भगवान का दीक्षा कल्याणक महोत्सव🌳


🌲ब्रह्म स्वर्ग से देवर्षि लौकांतिक देवोंने मर्त्यलोक में आकर तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ भगवान के वैराग्य की सराहना की।

🌴 चारों निकाय के देवों ने क्षीर समुद्र के जल से जिनराज सुपार्श्वनाथका दीक्षाभिषेक किया।
स्वर्ग से देवगणों द्वारा लायी सुमनोगति पालकी पर  जिनराज आरूढ़ हुए और जन्मनगरी बनारस के पास दीक्षा वन सहेतुक तक मनुष्य, विद्याधर, देवतागणने विशेष उत्सव पूर्वक पालकी को अपने कंधेपर रखकर जिनराज को लाया ।

🌿 तीर्थंकर प्रभु ने दीक्षा वन में रखी चंद्रकांतमणि की शिला पर विराजमान हो कर अपने वस्त्र-आभूषणों का त्याग किया , सिध्द परमेष्ठी को नमस्कार कर पंचमुष्ठी केशलोंच किया, सर्व प्रकार के सावद्य-पाप का त्याग कर परम सामायिक चारित्र को धारण किया, व्रत समिति गुप्ति आदि चारित्र के भेदों को धारण कर कुछ दिनों के उपवास के साथ श्री सुपार्श्वनाथ योगारूढ़ हुए।

☘️सौधर्म इंद्र ने भक्ति-भाव से तीर्थंकर के केशों का क्षीर समुद्र में विसर्जन हुआ। देवगण ने तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ की पूजा- भक्ति की।वे अपने- अपने स्वर्ग को लौटे।

🍀दीक्षा धारण करते ही तीर्थंकर प्रभु को मनःपर्ययज्ञान की उपलब्धि हुई, तपोबल से अनेक ऋद्धियों की एकसाथ प्राप्ति हुई। प्रभु सुपार्श्वनाथ केवलज्ञान होने तक परीषहों और उपसर्गों को मौन रहकर सहज भाव से सहन करते हुए बाह्य और अंतरंग तपानुष्ठानोंमें अनुरक्त हुए

🌱तीर्थंकर प्रभु आत्म साधना की गहन भूमिका को प्राप्त कर समाधिस्थ हो कर केवल्योपलब्धि से विभूषित हुए।
🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸

ज्येष्ठ सुदि बारस में जन्मे, सुरपति आसन कंपे।
देवगृहों में सबविध बाजे, स्वयं स्वयं बज उठते।।
जन्म न्हवन उत्सव विधिपूर्वक किया इंद्र सुरगण ने।
जन्मकल्याणक पूजा करते परमानंद हो क्षण में।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लाद्वादश्यां श्रीसुपार्श्वनाथजन्मकल्याणकाय
नमः अर्घ्यं.......
⭐️⭐️⭐️⭐️⭐️⭐️⭐️⭐️

ऋतु परिवर्तन देख विरक्ति ज्येष्ठ सुदि बारस मैं।
मनोगती पालकि सुर लाये प्रभु बैठे उस क्षण में।।
इंद्र सहेतुक वन में पहुँचे, प्रभु ने केश उखाड़े।
नमः सिद्ध कह दीक्षा धारी, पूजत कर्म पछाड़े।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लाद्वादश्यां श्रीसुपार्श्वनाथदीक्षाकल्याणकाय
नमः अर्घ्यं.........
🌳🌲🌳

💛केवलज्ञान तिथि:फाल्गुन कृष्णा षष्ठी  यक्ष:विजय,यक्षी:पुरुषदत्ता

❤️मोक्ष कल्याणक तिथि:फाल्गुन कृष्णा सप्तमी, मुक्तिस्थान:श्री सम्मेद शिखरजी।

Tuesday, 2 June 2020

Acharya Haribhadra suriji

आचार्य हरीभद्र सूरी जी ने 1444 ग्रंथ ही क्यों रचे ??

आचार्य हरिभद्रसूरिजी के दो शिष्य, अर्थात् हंस और परमहंस दूसरे धर्म के अनुयायियों के हाथों मारे गए थे। आचार्यश्री को बड़ी मानसिक पीड़ा हुई। अपने प्यारे चेलों की हत्या के सदमे ने उनमें बदला लेने की भावना पैदा कर दी। आचार्यश्री ने बुद्ध विहार के 1444 छात्रों और व्याख्याताओं को उबलते तेल में जिंदा भूनकर मारने का फैसला किया। गुस्सा और बदला विवेक के लिए कोई जगह नहीं छोड़ता।

अपनी कुत्सित योजना को अंजाम देने की दृष्टि से, आचार्यश्री ने उपाश्रय ( साधुओं और साध्वी ओके के ठहरने का स्थान) के दरवाजे बंद कर दिए और एक भट्टी पर एक विशाल पात्र में तेल उबाला। भस्म की सरासर शक्ति के साथ, आचार्यश्री ने सभी छात्रों और व्याख्याताओं को बुलाया और उन्हें आंगन में खड़ा कर दिया। वास्तव में, आचार्य श्री ने योजना बनाई और छात्रों और व्याख्याताओं को एक-एक करके बुलाने और उन्हें उबलते तेल में जिंदा भूनने का इरादा किया।

आचार्य की इस दुर्भावनापूर्ण योजना के बारे में याकिनी महातारा साध्वी जी को पता चला और जल्द ही वह उपाश्रय के पास भाग गई। दरवाजे बंद थे और आचार्य हरिभद्रसूरी ने याकिनी महातारा को बताया, जिसे वह अपनी मां के रूप में मानता था: "मैं कुछ संस्कारों में व्यस्त हूं। कृपया कुछ समय बाद आइए। "एक दृढ़ स्वर में उसने कहा:" मुझे आपकी तत्काल आवश्यकता है। कृपया दरवाजे खोलिए। "याकिनी महातारा ने आचार्यश्री को अपने सम्मान दिए और फिर कहा कि वह प्रायश्चित के लिए आई हैं।

 विद्वान आचार्य हरिभद्रसूरि ने खुद को याकिनी महातारा  के पुत्र के रूप में पेश किया क्योंकि पहले वह यकिनि महातारा के श्लोक (श्लोक) को समझने में असमर्थ रहे थे और उनकी विद्वता के गौरव को बहुत बड़ा झटका लगा था। शिक्षा में पराजित होने के बाद, उन्होंने अंततः जिन दत्तसूरिजी से दीक्षा ग्रहण की। जैसा कि याकिनी महातारा ने आचार्य को धर्मी पथ पर अग्रसर किया था, उन्होंने उन्हें अपनी माता के रूप में माना। इसलिए श्री हरिभद्रसूरि इस बात से चिंतित हो गए कि इस तरह के मातृत्व साध्वी जी ने कौन सा पाप किया होगा जो प्रायश्चित की आवश्यकता है।

याकिनी महातारा ने बताया कि जब वह टहल रही थी तब अनजाने में उसके पैरों के नीचे मेंढक कुचल गया था। उसके द्वारा की गई इस तरह की हिंसा के कारण उसकी आत्मा को बहुत पीड़ा हो रही थी। वह प्रायश्चित करना चाहती थी क्योंकि यदि उसका जीवन बिना पाप के विधिवत समाप्त हो गया, तो उसका जीवन एक उल्लंघनकर्ता का होगा।

आचार्य हरिभद्रसूरी ने आवाज उठाई और कहा, "ओह! तुम एक जीवित प्राणी की परवाह नहीं कर सकते थे! आपको इसके लिए प्रायश्चित करना चाहिए। "याकिनी महातारा ने बहुत सम्मानपूर्वक प्रायश्चित स्वीकार किया लेकिन विनम्रता से कहा:" मैंने एक उप-मानव के लिए प्रायश्चित सुरक्षित कर लिया है, जैसे मेरे द्वारा मारे गए एक मेंढक की तरह। लेकिन आप 1444 मनुष्यों की हत्या के माध्यम से एक जानबूझकर हिंसा में लगे हुए हैं। इस हत्या का प्रायश्चित क्या होगा? "

याकिनी महातारा के इन शब्दों ने आचार्यश्री हरिभद्र के क्रोध और रोष को दूर कर दिया। व्याख्याताओं और छात्रों को, जो उसकी भयावह शक्ति के द्वारा बुलाए गए थे, वापस भेज दिए गए। अपनी दुर्भावनापूर्ण योजना के लिए प्रायश्चित के रूप में, उन्होंने 1444 पुस्तकों की रचना की जिसमें मानवीय गुणों जैसे कि मना, सहिष्णुता आदि को शामिल किया गया। शत्रुता ने सीखने और छात्रवृत्ति के लिए रास्ता दिया।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने हमेशा साध्वी याकिनी महातारा का सम्मान किया और वह इस तथ्य को स्वीकार करते थे कि साध्वीजी की बदौलत ही उन्होंने जैन धर्म की शाही राह को पाया था जिसने जन्मों के चक्र से खुद को मुक्त कर लिया।

यह काव्य अंग्रेजी में लिखा हुआ था जिसका हिंदी अनुवाद करके पोस्ट कर रहा हूं अनुवाद में कोई मिस्टेक हुई हो तो एक बार अंग्रेजी में भी पढ़ सकते हैं l

Two disciples of Acharya Haribhadrasuriji, namely Hans and Paramhans were killed at the hands of followers of other religion. Acharyashri suffered great mental commotion. The shock of the killing of his loving disciples caused a sense of revenge in him. 

Acharyashri decided to kill 1444 students and lecturers of Bauddha Vihar by roasting them alive in boiling oil. Anger and revenge leave no place for discretion.
With a view to executing his malicious plan, Acharyashri closed the doors of the upashraya (a place for the stay of Jain monks .) and boiled oil in a huge vessel on a furnace. With the sheer power of incantation, Acharyashri called all the students and lecturers and made them stand in the sky.

 Actually the infuriated Acharyashri planned and intended to call the students and the lecturers one by one and fry them alive in the boiling oil.

Yakini Mahattara came to know about this malicious plan of the Acharya and soon she came rushing to the upashraya. The doors were closed and Acharya Haribhadrasuri told Yakini Mahattara whom he regarded as his own mother: "I am engaged in some rites. Please come after some time." In a firm voice she said: "I need you urgently. Kindly open the doors." The doors were opened and Yakini Mahattara paid her respects to Acharyashri and then she said that she had come for atonement.

Acharya Haribhadrasuri, the learned scholar introduced himself as the son of Yakini Mahattara because previously he had been unable to understand a shloka (verse) of Yakini Mahattara and his pride of scholarship had suffered a great set-back. Having been defeated in learning, he ultimately had accepted initiation from Jindattasuriji. As Yakini Mahattara had led the Acharya to the righteous path, he regarded her as his own mother. 

Hence Shri Haribhadrasuri became anxious as to what sin such a motherly nun would have done that necessitated atonement.
Yakini Mahattara told that while she had been walking a frog was unknowingly crushed under her feet. Her soul was suffering great torment because of such violence committed by her. She wanted to have atonement because if her life were to end without the sin being duly atoned for, her life would be that of a violator.
Acharya Haribhadrasuri raised his voice and said, "Oh! You couldn't care about a living being! You must make atonement for it." Yakini Mahattara very respectfully accepted the atonement but politely added: "I have secured atonement for a sub-human being like a frog unknowingly killed by me. But you are engaged in a deliberate violence by way of killing 1444 human beings. What would be the atonement for this killing?"
These words of Yakini Mahattara dispelled the anger and fury of Acharyashri Haribhadra. The lecturers and students who were called by his sheer power of incantation were sent back. As an atonement for his malicious plan, he composed 1444 books elucidating human virtues like forbearance, tolerance etc. Animosity gave way to learning and scholarship.
Acharya Haribhadrasuri always respected Sadhvi Yakini Mahattara and he used to accept the fact that thanks to Sadhviji, he had found the royal road of Jainism that liberated himself from the cycle of births.

Song new

(तर्ज : कब तक याद करूं मैं उसको)
क्यां सुधी याद करूं हं तमने, क्यां सुधी आंसु वहादुं ?, आवी मुजने मलो प्रभुजी !, हवे ना तडपावो..
हवे ना तडपावो... हवे ना तडपावो आ संसारे एक भरोसो, छे मुजने प्रभु ! तारो, तारो ना जो मुजने प्रभु ! तो, क्याथी आवे आरो,
मुज हैयानी एक विनंति, दिलमा तमे अवधारो, सेवक छुहं तारो मुजने, भवजल पार उतारो
बाल बनी पुकारु तमने, मात बनीने आवो करुणानो महासागर तुं छे, बुंद मने पण देजे, पागल बनुं हुं तारी पाछळ, एवी भक्ति देजे,
दुःखथी हारी ना हुं जाउं, एवी शक्ति देजे, सघळा बंधनोथी मुजने, मुक्त करी तुं देजे,
जनम जनमनो प्यासी हं छु, प्यास बुझावा आवो

निश्चल ने निर्मल श्रद्धा तुं, मारा हृदये भरजे, निर्मलतानो स्वामि छे तुं, मुजने निर्मल करजे,
तारा मारगथी भटकुं तो, भोमियो मारो बनजे, जीवननी प्रत्येक पळे तुं, मारी साथे रहेजे,
विनंति मारी मानो प्रभुजी, जल्दी जल्दी आवो
माश नाथ !
आ दुनियाना गीच बजारमा मारा दिवसो पसार याय, अने रोजना माश नफाथी मारा हाथ भराई जाय, त्यारे हमेशा मने एवू लागवा दे के,
मने कशो लाभ थयो नथी.

Samvay karan

पांचर्वां समवाय : पार्ट(6)
एक विश्लेषण -

पाचवें समवाय मे पाँच क्रिया, पाँच महाव्रत, पाँच कामगुण, पाँच आश्रव द्धार, पाँच संवर द्वार, पांच निर्जरास्थान, पांच समिति, पांच अस्तिकाय, रोहिणी, पुनर्वसु, हस्त, विशाखा धनिष्टा नक्षत्रो के पांच-पाँच तारे,
नारको और  देवों की पांच पल्योपम, और पांच सागरोपम की स्थिति तथा पांच भव कर मोक्ष जाने वाले भवसिद्धिक जीवो का उल्लेख है ।

सर्वंप्रथम क्रियाओ का उल्लेख है । क्रिया का अर्थ "करण" और व्यापार" है । कर्म-बन्ध मे कारण बनने वाली चेष्टाए "क्रिया" हैं | दूसरे शब्दो मे यो कह सकते हैं कि मन, वचन  और काया के दुष्ट व्यापार-विशेष को क्रिया कहते है । क्रिया कर्म-बन्ध की मूल है । वह  संसार जन्ममरण की जननी है । जिससे कर्म का आश्रव होता है, ऐसी प्रवृत्ति क्रिया कहलाती है । स्थानांगसूत्र मे भी क्रिया के जीव- क्रिया अजीव क्रिया और फिर जीव-अजीव क्रिया के भेद-प्रभेदो की चर्चा है । यहां पर मुख्य रूप से पाँच क्रियाओ का उल्लेख है। प्रज्ञापना-सूत्र मे पच्चीस क्रियाओ का भी वर्णन मिलता है । जिज्ञासु को वे प्रकरण देखने चाहिए । क्रियाओ से मुक्त होने के लिए महाव्रतो का निरूपण है ।
महाव्रत श्रमणाचार का मूल है। आागम साहित्य में महाव्रतो के सम्बन्ध मे विस्तार से विश्लेषण किया गया है । आगमो मे महाव्रतो की तीन परम्पराएँ मिलती हैं । आचारांग मे अहिंसा सत्य, बहिद्धादान इन तीन महाव्रतो का उल्लेख प्राप्त होता है । स्थानांगसूत्र,  उत्तराध्ययन और  दीर्घनिकाय मे चार याम का वर्णन है ।
वे ये हैं--अहिंसा, सत्य, अचौयं और बहित्वादान । बौद्ध साहित्य में अनेक स्थलो पर चातुर्याम का उल्लेख हुअा है।

 प्रश्न व्याकरण के संवर प्रकरण में महाव्रतो की चर्चा है दशवेकालिक सुत्र मे प्रत्येक महाव्रत का विस्तृत
विश्लेषण किया गया है। भगवती सूत्र में प्रत्याख्यान के स्वरूप को बताने के लिये महाव्रतो का उल्लेख है।
तत्वार्थसूत्र और उसके व्याख्यासाहित्य मे भी महाव्रतो के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है । जिसे जैन साहित्य मे महाव्रत कहा है उसे ही बोद्ध साहित्य मे दश कुशलधर्म कहा है । उन्होने दश कुशल धर्मों का समावेश इस प्रकार किया है-

कुशलधर्म'
(१) प्राणातिपात एव (२) अदत्तादान से विरति
(३) काम मे मिथ्याचार से विरति
(९) व्यापाद से विरति
(४) मृषावाद (५) पिशुनवचन (६) परुषवचन (७) संप्रलाप से विरति(८) अमिष्या विरति ।

महाव्रत
(१) अहिसा(२) सत्य (३) अचौर्य (४) ब्रह्मचर्यं
(५) अपरिग्रह

अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच महाव्रत असंयम  के स्रोत को रोककर
संयम के द्वार को उद्घाटित करते है । हिंसादि पापो का जीवन भर के लिये तीन करण और  तीन योग मे त्याग kiya जाता है । महाव्रतो मे सावद्य योगो का पूर्ण रूप से त्याग होता है । महाव्रतो का पालन करना तीक्ष्ण तलवार की धार पर चलने के सदृश है । जो संयमी होता है वह इन्द्रियो के कामगुणो से बचता है । आश्रवद्धारो का निरोध कर संवर और निर्जरा से  कर्म को नष्ट करने का  प्रयत्न करता है ।
इसके पश्चात् शास्त्रकार ने पांच  समितियो का उल्लेख किया है । सम्यक् प्रवृत्ति को समिति कहा गया हैं ।मुमुक्षुओ की शुभ योगो मे प्रवृत्ति होती है | उसे भी समिति कहा है । ईर्यासमिति अादि पांच को इसीलिए समिति संज्ञा दी है । उसके पश्चात् पंच अस्तिकाय का निरुपण किया गया है । पचास्तिकाय जैन- दर्शन की अपनी देन है । किसी भी दर्शन ने गति और स्थिति के माध्यम के रूप मे भिन्न द्वव्य नही माना है । वैशेषिक दर्शन ने उत्क्षेपण आदि को द्रव्य न मानकर कर्म माना है ।

 जैनदर्शन ने गति के लिए धर्मास्तिकाय और स्थिति
के लिए अधर्मास्तिकाय स्वतन्त्र द्रव्य माने हैं । जैनदर्शन की आाकाश विषयक मान्यता भी अन्य दर्शनो से विशेषता लिये हुए है । अन्य दर्शनो ने लोकाकाश को अवश्य माना है पर अलोकाकाश को नही माना । अलोकाकाश की मान्यता जैनदर्शन की अपनी विशेषता है । पुद्गल द्रव्य की मान्यता भी विलक्षणता लिये हुए है । वेशेषिक आदि दर्शन पृथ्वी आदि द्रव्यो के पृथक्-पृथक जातीय परमाणु मानते है । किन्तु जैनदर्शन पृथ्वी आदि का एक पुद्गल द्रव्य मे ही समावेश करता है। प्रत्येक पुद्गल परमाणु मे स्पर्श, रस, गन्ध और रूप रहते है । इसी प्रकार इनकी पृथक्-पृथक् जातिया नही, अपितु एक ही जाति है । पृथ्वी का परमाणु पानी के रूप मे बदल सकता है और पानी का परमाणु अग्नि मे परिणत हो सकता है । साथ ही जैनदर्शन ने शब्द को भी पोद्गलिक माना है । जीव के सम्बन्ध मे भी जैनदर्शन की अपनी विशेष मान्यता है । वह संसारी आत्मा को स्वदेह-परिमाण मानता है । जैन-दर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी भी दर्शन ने आत्मा को स्वदेह-परिमाण नही माना है ।
इस  तरह पांचवे समवाय मे जैनदर्शन सम्बन्धी विविध पहलुओ पर चिन्तन किया गया है ।

Sadhvi kalawati

 साध्वी कलावती 

उज्जैनी नगरी के शंखराजा की रानी कलावती के जीवन में शीलपालन की महत्ता प्रकट होती है । मालवपति शंखराजा की रानी कलावती गर्भवती हुई और उसके आनंद स्वरुप महल में उत्सव का आयोजन हुआ । इस समय कलावती के पीहर से एक संदूक में भेंट के रुप में अलंकार आये । कलावती के भाई ने ये अलंकार भेजे थे ।इनमें से अँधेरे में उजाला प्रसारित करें ऐसे नगजड़ित कंगन कलावती ने अपने हाथों में पहने । अन्य रानियों को यह देखकर ईर्ष्या हुई । उन्होंने राजा के कान भरें । यह भी कहा कि राजा ने रानियों के बीच में भेदभाव रखा है । ऐसे सुवर्ण के कंगन कहाँ से आये इसका रहस्य स्वयं राजा के मन में भी बार-बार उठता था ।

रानी लीलावती ने शंखराजा से कहा कि वे चोरी-चोरी छिपकर उनकी कलावती के साथ की बातें सुनें । लीलावती ने कलावती से पूछा , तब कलावती ने लाक्षणिक रीति से कहा , " मैं जिनके वहाँ अत्यन्त लाड़ली हूँ उन्होंने ये कंगन भेजे है । मुझे रात-दिन सदैव याद करनेवालों की यह भावभरी भेंट है । "

कलावती ने साफ-साफ यह नही कहा कि ये कंगन तो उसके सगे भाई की भेंट है । यह सुनते ही शंख राजा क्रोधायमान हुए । उन्हें कलावती के शील पर सन्देह हुआ । उसके पूर्व के किसी प्रेमी ने ये कंगन भेंट रुप में दिये होंगे ऐसा माना ।

शंका और क्रोध की कोई सीमा नही होती । राजा ने सोचा कि कंगन सहित कलावती के दोनों हाथ कटवा डालूँ । रथ में बिठाकर गर्भवती कलावती को लेकर चांड़ाल निकल पड़ा । राजा ने कहा कि वे उसे पीहर भेजते है , परंतु उजाड़ भूमि में चांड़ाल ने रथ खड़ा किया । कलावती ने कहा कि यह कोई मेरे पीहर का मार्ग नही है , तब चांडाल ने सच्ची बात बताई । 

कलावती को भारी सदमा पहुँचा । दाहिना हाथ उसने स्वयं काट डाला और बाँया हाथ चांडाल ने काट डाला । कंगन सहित कटे हुए दोनों हाथ लेकर चांडाल राजा के समक्ष उपस्थित हुआ । कंगन पर कलावती के भाई का नाम देखकर राजा को अपने घोर अपराध का विचार आया और मूर्छित हो गये । उन्होंने सोचा कि स्वयं शीलवती नारी पर कितनी बड़ी कुशंका की ? दोनों हाथ काट डालने की निर्दय आज्ञा खुदने क्यों दी ?

पश्चाताप का अनुभव करते हुए राजा चंदनकाष्ठ की चिता रचाकर अग्निस्नान करने को तैयार हुए । प्रजा ने राजा को ऐसा करते हुए रोकने के बहुत प्रयत्न किए । दूसरी ओर जिस समय चांडाल ने कलावती के हाथ काट डाले तभी उसने पुत्र को जन्म दिया । इस विरान भूमि में बालक की कोई देखभाल नहीं हो पायेगी ऐसा सोचकर कलावती विलाप करने लगी । यकायक उजाड़ भूमि में वृक्षों का वन लहरा उठा । सूखी नदी में पानी बहने लगा और कलावती के दोनों हाथ कंगन सहित पूर्ववत हो गये । इस समय एक तपस्वी आया और उसने अकेली कलावती को देखा । तपस्वी कलावती के पिता के परम मित्र थे । कलावती का वृतान्त सुनकर उसमें प्रचंड क्रोध जागा और सोचा कि ऐसा घोर जुल्म करनेवाले शंखराजा के राज्य में उल्कापात मचा दूँ ।

सती कलावती ने तपस्वी से प्रार्थना की कि आप मेरे पिता समान है । कृपया इतने अधिक क्रोधायमान मत होइए । तपस्वी ने कलावती को रहने के लिए और उसके बालक के लालनपालन के लिए विद्याशक्ति से आवास की रचना की । इस समय वन में से जाते हुए लकड़हारे ने यह देखा इसलिए वह राजा को कहने के लिए भागा । अग्निस्नान करने जाते हुए राजा को रोकने के लिए मंत्री ने एक महीनें की अवधि माँगी थी और रानी को खोजकर वापस ले आने को कहा था । राजा को ज्ञात होते ही वे रानी कलावती को लेने आये ।

एक बार धर्मधुरंधर साधु के आने पर कलावती ने अपने जीवन पर आयी हुई आपत्ति की बात बताई । साधु ने कहा कि पूर्वजन्म में वह राजकुमारी थी और उसने अपने तीर से एक पक्षी की पाँखें काट डाली थी । वह पक्षी इस जन्म में राजा बना ।

अपने पूरावभव और कर्म कि ऐसी गति जानकर राजा और रानी दोनों ने निर्मल भाव से संयम का मार्ग अपनाया और साधुता के पवित्र पंथ पर चल पड़े ।

Vajrapanjar stotra

♿श्री वज्रपंजर स्तोत्र
 सांसारिक विपत्तिओ दूर करी आध्यात्मिक संपत्ति प्रदान करनारी, सप्त भयोनुं निवारण करी अभय बनावनारी, महा अनुष्ठान स्वरुप आत्मरक्षा विविध मुद्राओथी करवा पूर्वक आपणी आजुबाजु वज्रमय किलो बनी रह्यो छे, एवी कल्पना करवी.

ॐ परमेष्ठि नमस्कारं, सारं नवपदात्मकं । 
आत्मरक्षाकरं वज्र-पञ्जराभं स्मराम्यहम् ।।

ॐ नमो अरिहंताणं, शिरस्कं शिरसि स्थितम् । 
ॐ नमो सव्वसिद्धाणं, मुखे मुखपटं वरम् ।।

ॐ नमो आयरियाणं, अङ्गरक्षाऽतिशायिनी । 
ॐ नमो उवज्झायाणं, आयुधं हस्तयोर्दृढम् ।।

ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं, मोचके पादयोः शुभे । 
एसो पञ्च नमुक्कारो, शिला वज्रमयी तले ।।

सव्वपावप्पासणो, वप्रो वज्रमयो बहिः । 
मंगलाणं च सव्वेसिं, खादिराङ्गारखातिका ।।

स्वाहान्तं च पदं ज्ञेयं, पढमं हवइ मङ्गलं । 
वप्रोपरि वज्रमयं, पिधानं देहरक्षणे ।।

महाप्रभावा रक्षेयं, क्षुद्रोपद्रवनाशिनी । 
परमेष्ठिपदोद्भूता, कथिता पूर्वसूरिभिः ।।

यश्चैवं कुरुते रक्षां, परमेष्ठिपदैः सदा । 
तस्य न स्याद् भयं व्याधि –राधिश्चापि कदाचन ।

Sadhvi madanrekha

 साध्वी मदनरेखा 🌷🌷🌷
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साध्वी मदनरेखा की जीवनकथा अर्थात नारी के शील के सात्विक प्रभाव की विजयकथा । अनगिनत आपत्तियों और आकस्मिक -अचीती घटनाओं से जीवन में अनेक आघात-प्रत्याघातों को सहन करनेवाली साध्वी मदनरेखा का जीवनचरित्र जितना रोमांचक है , उतना ही प्रेरक है ।

सुदर्शनपुर नगर के मणिरथ राजा के छोटे भाई युगबाहु की पत्नी मदनरेखा अत्यंत सौंदर्यवान थी । उसके सौंदर्य से मुग्ध हुए मणिरथ राजा ने कीमती आभूषण , वस्त्र और सुगन्धित पुष्प भेजकर मदनरेखा को कामक्रीड़ा के लिए संदेशा भेजा , तब मदनरेखा ने राजा को स्पष्ट शब्दों में कहा कि छोटे भाई की पत्नी के बारे में ऐसा विचार करना आपके लिए अशोभनीय है । राजा मणिरथ की कामवासना की आग अधिकाधिक प्रदीप्त होती रही । कामी मनुष्य की विषयलालसा उसके विवेक के दीपक को बुझा देती है । राजा मणिरथ ने मदनरेखा को येनकेनप्रकारेण प्राप्त करने के लिए अपने लघु भ्राता युगबाहु की हत्या करने का अधम विचार किया ।

वसंतपुर नगर में स्थित कदलीगृह में एक समय युगबाहु निंद्राधीन था , तब अचानक मणिरथ ने तलवार से प्राणघातक हमला किया । व्याकुल मदनरेखा की चीखें सुनकर दौड़ आये सुभटों ने राजा को पकड़ तो लिया , परन्तु क्षमामूर्ति युगबाहु ने सुभटों से कहा कि मेरे बड़े भाई का वध मत करना । यह तो मेरे पूर्वजन्म का फल है । इस प्रकार मौत के मुँह से बचा हुआ मणिरथ राजा मन-ही-मन आनंदपूर्वक विचारने लगा कि स्वयं युगबाहु की हत्या करने में कैसा सफल हुआ ! किन्तु कर्म की गति अनोखी है ।वन में से पसार हो रहे मणिरथ राजा को सर्पदंश होते ही उसकी मृत्यु हुई ।

युगबाहु अंतिम साँस ले रहे थे तब उनका पुत्र चंद्रयशा वहाँ आ पहुँचा । मदनरेखा ने पति द्वारा सब जीवों की क्षमा माँगकर अंतिम समय की आराधना की अमृतवाणी सुनाई । इस धर्मवाणी का श्रवण करते हुए शुभ ध्यान में लीन हुए युगबाहु ब्रहृदेवलोक में देवरुप में उत्पन्न हुए । दूसरी ओर पृथ्वी पर मदनरेखा अत्यंत व्यथित हो गई । स्वयं पति की मृत्यु का निमित्त बनी इसलिए वह अपने आप के प्रति धिक्कार का भाव अनुभव करती हुई एकांत जंगल में गुप्तवास करने लगी । इस जंगल में उसके दूसरे पुत्र का जन्म हुआ । उसके हाथ में युगबाहु की नामांकित अंगूठी पहनाकर नवजात शिशु को रत्नकँबल में लपेटकर वृक्ष की छाया में रखकर स्नान करने जलाशय की ओर गई ।

जलाशय में स्नान करती हुई मदनरेखा को जलहस्ति ने सूँढ़ में लपेटकर आकाश में उछाला । आकाश से पसार होते विद्याधर ने उसका रक्षण किया । विद्याधर भी मदनरेखा के रुप पर मोहित हुआ । कामासक्त विद्याधर को उसके पिता मुनिराज मणिचूर ने संसार की असारता , सौंदर्य की क्षणभंगुरता और परस्त्रीगमन के पाप की बात करते ही विद्याधर के हृदय के चहुँ ओर जमे हुए विषय के बादल छँट गये । कीचड़ में कमल उगे उसी प्रकार उसने मदनरेखा की क्षमायाचना करके उसे अपनी भगिनी बनाया ।

मिथिला नगरी में आयी हुई मदनरेखा को ज्ञात हुआ कि भरतखंड के सुदर्शनपुर नगर के राजा चंद्रयशा और मिथिला के राजा बने हुए नमिकुमार एकदूसरें के सामने युद्ध कर रहे है । उस समय मदनरेखा दीक्षा लेकर सुव्रता साध्वी बनी थी । उसने गुरुआनी की आज्ञा लेकर युद्ध का महासंहार रोकने के लिए युद्धक्षेत्र पर प्रयाण किया । युद्ध का कारण यह था कि नमिराजा के भागे हुए श्वेत हाथी को चंद्रयशा ने जबरन पकड़कर अपने पास रखा था । रणभूमि पर मदनरेखा ने धर्मोपदेश दिया और फिर एकांत में दोनों राजाओं को उनका पूर्ववृतांत कहते ही दोनों सगे भाईयों की तरह एकदूसरें से भेंट पड़े ।

परिणामतः युद्ध के महासंकट के स्थान पर बिछुड़े हुए भाईयों के मिलन का महोत्सव निर्मित हो गया ।

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साभार: जिनशासन की कीर्तिगाथा

Anupreksha

ઇષ્ટફળ સિદ્ધિની વ્યાખ્યા શાસ્ત્રમાં શું છે ? 

🅰_વૃન્દારુવૃત્તિમાં ઇષ્ટફલસિદ્ધિ:ની વ્યાખ્યા અૈહિક પદાર્થની પ્રાપ્તિ જેનાથી ઉપગૃહીત થનારાનુ ચિત્ત સ્વસ્થ થાય 

એટલે સ્પષ્ટ થઇ જાય  છે કે પ્રભુ પાસે ભૌતિક ચીજ ન મંગાય એ વાત ઊભી નથી રહેતી ♦

પ્રશ્નોતર ચિંતામણિમાં તો એકદમ સ્પષ્ટ છે 
ઇષ્ટફલસિદ્ધિએ  મોક્ષ ની માંગણી કરી કે બીજી ?
ઉત્તર _ વૃન્દારુવૃત્તિ વગેરેને અનુસરીને જણાય છે કે ધર્માનુષ્ઠાનોનુ આચરણ નિર્વિઘ્નપણે થઇ શકે એમાં કારણભૂત આ લોકમાં નિર્વાહ કરી આપે એવું દ્રવ્યાદી પૈસા વગેરેનુ સુખ માંગ્યુ છે

: અનુપ્રેક્ષા ....
શા માટે વિતરાગ પાસે જ મંગાય .
પાર્ટ _61
આશયશુદ્ધિ અધિકાર 
ચા પીતા નવકાર ગણાય પણ નવકારવાલી ગણતા ચા ના પીવાય .

અર્થ કામ માટે પણ ધર્મ જ કરાય પણ ઉત્તમ જીવોએ ધર્મ કરતા આશંસા ન ઈચ્છવી તેમ ગુરુ કહેતા હોય છે.

નીરાશંસ ભાવે કરેલ આરાધના આત્મશુદ્ધિમાં પ્રગતિદાયક છે .માટે ગુરુ એમ કહે કે તુ સાધના કરતા આશંસા આદિ ના રાખ.પણ આશંસાયુક્ત જીવોને ધર્મનો નિષેધ ક્યારેય ના કરે 

ડાઘ લાગ્યો હોય તો ડાઘ દૂર કરાય કપડાને ફાડિને ફેંકી ન દેવાય

અર્થ કામ ખરાબ છે માટે એ સુખની લાલસા છોડાવાય સર્વજ્ઞ પ્રણીત ધર્મ નહિં.

તે ડાઘ (અર્થ -કામ -વિષય -કષાય પર ઉભેલા સંસાર પ્રત્યે ત્યાજ્ય ભાવ ઝગાડે )નીકાળવા કહે. 
ધર્મ હરહંમેશ રમ્ય છે.

અનુપ્રેક્ષા . . . . . 
પ્રભુ તો વિતરાગ છે તો પછી તેમની કૃપા થકી મળ્યું કઈ રીતે કહેવાય ? 
🅰-જેવી રીતે ચિંતામણિ રત્ન ,દક્ષિણાવર્તશંખ ,કલ્પવૃક્ષ,
કામકુંભ વગેરે જો કે પૂજ્નાર પર રાગ નથી કરતા રાગથી હાથોહાથ કશુ આપતા નથી છતા યોગ્ય આત્માઓ એનાં દ્વારા મનવાંછિત વસ્તુ પ્રાપ્ત કરે છે 

એમ પ્રભુ પૂજક કે અપૂજક પર રાગ -દ્વેષ ન કરનાર છતા એમને સ્તુતિવિષય બનાવવા દ્વારા ભવ્યાત્માઓ ઈષ્ટફલ મેળવે છે 

પ .પૂ ભુવનભાનુ સૂરિશ્વરજી  મ .સા પરમતેજ

Arihant ke 12 gun

अरिहन्त के 12 गुण-
एक धारणा जो अरिहन्त का अर्थ तीर्थंकर मानती है उसके अनुसार अरिहन्त भगवान निम्न 12 गुणों से युक्त होते हैं- (1) अनन्त ज्ञान (2) अनन्त दर्शन (3 ) अनन्त चारित्र (4 ) अनन्त तप (5) अनन्त बलवीर्य
(6) अनन्त क्षायिक सम्यक्त्व (7 ) वज्र ऋषभनाराच संहनन ( 8) समचतुरस्र संस्थान ( 9) चौंतीस अतिशय
(10) पैंतीस वाणी के गुण (11) एक हजार आठ लक्षण ( 12) चौसठ इन्द्रों के पूज्य ।

कोई-कोई निम्नलिखित 12 गुण मानते हैं :-(1) अनन्त ज्ञान (2) अनन्त दर्शन (3) अनन्त चारित्र (4) अनन्त तप; और (5-12) आठ महाप्रतिहार्य-अशोक वृक्ष, सिंहासन, तीन छत्र, चौसठ चॅवर के जोड़े,
प्रभामण्डल अचित्त फूलों की वर्षा, दिव्य ध्वनि, अन्तरिक्ष में साढ़े बारह करोड़ देव दुन्दुभि बाजे।

किन्तु उववाई सूत्र में वर्णित अरिहन्त प्रभु के बारह गुण उक्त दोनों परम्पराओं से भिन्न हैं, जो आत्मिक गुणों के रूप में होने से अधिक संगत एवं मौलिक हैं । आगम सम्मत वे बारह गुण निम्न हैं :-
(1) अणासवे  (2) अममे (3) अकिंचणे (4) छिन्नसोए (5 ) निरूवलेवे (6) ववगय पेम - राग - दोस - मोहे
(7) निग्गंथस्स पवयणं देसए (8) सत्थनायगे (9) अणंत नाणी ( 10 ) अणंतदंसी (11 ) अणंतचरित्ते (12 ) अणंत वीरियसंजुत्ते ।

Arihant 18 dosh rahit

अरिहन्त भगवान 18 दोष रहित होते हैं।

अरिहन्त भगवान वितराग  और सर्वज्ञ होते हैं।   चार घाति कर्मों का नाश होने पर अर्हन्त-अवस्था प्रकट होती है। जो महान् पुरुष चार घाति कर्मों से रहेत हो चुके हैं, उनकी आत्मा में किसी प्रकार का विकार या दोष नहीं रह सकता। घाति कर्म ही सब प्रकार के दोषों को उत्पन्न करते हैं।
मोहनीय आदि घाति कर्मों का नाश हो जाने पर आत्मा विभाव- परिणति का त्याग करके स्वभाव परिणति में जाता है। ऐसी अवस्था में आत्मा निर्दोष, निरंजन, निष्कलंक और निर्विकार होता है। अतः अरिहन्त भगवान में दोष का लेश भी नहीं रहता। वे समस्त दोषों से अतीत होते हैं। किन्तु यहाँ जिन अठारह दोषों का अभाव
बतलाया जा रहा है, वे उपलक्षण मात्र हैं। किन्तु इन दोषों का अभाव प्रकट करने से समस्त दोषों का अभाव समझ लेना चाहिये। जिस आत्मा में निम्नलिखित अठारह दोष नहीं होंगे, उसमें अन्य दोष भी नहीं रह सकते।

1. मिथ्यात्व- जो वस्तु जैसी है उस पर वैसी श्रद्धा न रखकर, विपरीत श्रद्धा करना मिथ्यात्व दोष
कहलाता है। अरिहन्त भगवान क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर चुकते हैं। इसलिये मिथ्यात्व दोष से रहित होते हैं।

2.अज्ञान- ज्ञान न होना अथवा विपरीत ज्ञान होना अज्ञान कहलाता है। ज्ञान न होने का कारण
ज्ञानावरणीय कर्म है और विपरीत ज्ञान होने का कारण मोहनीय कर्म है। अरिहन्त भगवान इन
कर्मों से रहित होते हैं। वे केवलज्ञानी होने से समस्त लोकालोक एवं चर-अचर पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानते हैं।

3.मद- अपने गुणों का गर्व होना मद कहलाता है। मद वहीं होता है जहाँ अपूर्णता हो। अरिहन्त
सब गुणों से सम्पन्न होने के कारण मद नहीं करते। कहा भी है - "सम्पूर्ण कुम्भो न करोति
शब्दम्" अर्थात्- गर्व न करना ही सम्पूर्णता का  चिन्ह है ।

4.क्रोध- क्षमाशूर अरिहन्त कहलाते हैं। वे क्षमा के सागर होते हैं ।

5.माया- छल-कपट को माया कहते हैं। अरिहन्त अत्यन्त सरल स्वभाव वाले होते हैं।

6. लोभ- इच्छा या तृष्णा को लोभ कहते हैं। अरिहन्त भगवान प्राप्त हुई ऋद्धि का परित्याग करकेअनगार अवस्था अंगीकार करते हैं। उन्हें अतिशय आदि की महान् ऋद्धि प्राप्त होती है, फिर भी उसकी इच्छा नहीं करते। वे अनन्त संतोष सागर में ही रमण करते रहते हैं।

7. रति- इष्ट वस्तु की प्राप्ति से होने वाली खुशी रति कहलाती है। अरिहन्त अवेदी, अकषायी और वीतरागी होने के कारण तिलमात्र भी रति का अनुभव नहीं करते, क्योंकि भगवान को कोई भी वस्तु इष्ट नहीं है।

8.अरति- अनिष्ट या अमनोज्ञ वस्तु के संयोग से होने वाली अप्रीति अरति कहलातीं है । अरिहन्त
भगवान समभावी होने से किसी भी दुःखप्रद संयोग से दुःखी नहीं होते।

9.निद्रा- दर्शनावरण कर्म के उदय से निद्रा आती है । इसका सर्वथा क्षय हो जाने के कारण
अरिहन्त निरन्तर जागृत ही रहते हैं।

10. शोक- इष्ट वस्तु के वियोग से शोक होता है। अरिहन्त भगवान के लिये कोई इष्ट नहीं है और
किसी भी पर वस्तु के साथ उनका संयोग भी नहीं होता, अतः वियोग का प्रश्न ही नहीं उठता
और इसलिये उन्हें शोक नहीं होता।

11. अलीक- झूठ बोलना अलीक कहलाता है । अरिहन्त सर्वथा निस्पृह होने से कभी किंचित् भी
मिथ्या भाषण नहीं करते और न अपना वचन पलटते हैं। भगवान शुद्ध सत्य की ही प्ररूपणा
करते हैं।

12. चौर्य- मालिक की आज्ञा बिना किसी वस्तु को ग्रहण करना चोरी है। अरिहन्त निरीह होने के
कारण मालिक की आज्ञा के बिना किसी भी पदार्थ को कदापि ग्रहण नही करते।

13. मत्सरता- दूसरे में किसी वस्तु या गुण की अधिकता देखने से होने वाली ईष्ष्या को मत्सरता कहते हैं। अरिहन्त से अधिक गुणधारक तो कोई होता नहीं, अगर गोशालक के समान फितूर करके कोई अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने का प्रयत्न करता है तो भी अरिहन्त कमी ईष्ष्याभाव नहीं धारण करते 

14. भय- अर्थात डर। भय सात प्रकार के हैं ( इहलोकभय- मनुष्य का भय (2) परलोक भय
तिर्चच तथा देव आदि का भय (3) आदानभय- धनादि सम्बन्धी भय (4 )अकस्मात् भय- बाहय
निमित्त के बिना गृहादि में  स्थित का रात्रि आदि में भय (5 ) वेदना भय- पीड़ा से होने वाला
भय (6) मृत्यु  भय (7) अपूजा- अश्लाघा का भय । अरिहंत भगवान भय मोहनोय से रहित
होने से इन सातो भयों से अतीत है। वे किसी प्रकार के भय से भीत नहीं होते।

15. हिंसा-. षटकाय  जीवो में  किसी का घात करना हिंसा है। अरिहन्त महादयालु होते हैं,
 ये त्रस और स्थावर सभी जीवों की हिंसा से सर्वथा निवृत्त होते हैं। साथ ही "मा हन"अर्थात्
किसी भी  जीव को मत मारो , इस प्रकार का उपदेश देकर दूसरों  को भी हिंसा का त्याग करवाते है l
"सव्वजगजीवरक्खणदट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं "अर्थात समस्त जगत के जीवों
की रक्षा रूप दया के लिये ही भगवान ने उपदेश दिया है, ऐसा श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र में उल्लेख
है। अरिहन्त हिंसा के कृत्य को अच्छा नहीं को अच्छ जानते।।

16, प्रेम- अरिहन्त में तन, स्वजन तथा धन आदि  संबंधी स्नेहा नहीं होता। वे वन्दक और निन्दक
में समभाव रखते हैं। इसलिये अपनी पूजा करने वाले पर तुष्ट  होकर उसका कार्य सिद्ध नहीं
करते और निन्दा करने वाले पर रुष्ट हाकर उसे दुख नहीं देते।

17. क्रीड़ा- मोहनीय कर्मो  रहित होने के कारण अरिहंत सब प्रकार की क्रीड़ाओं  से रहित होते
हैं। गाना, बजाना, रास खेलना, रोशनी करना, मण्डप बनाना, भोग लगाना इत्यादि क्रियाएं
करके भगवान को जो प्रसन्न करना चाहते  हैं, वे बड़े मोहमुग्ध हैं।

18. हास्य- किसी अपूर्व-अदभुत वस्तु या क्रिया आदि को देखकर हंसी आती है। सर्वज्ञ होने के
कारण उनके लिये कोई वस्तु अपूर्व नहीं है. गुप्त नहीं है। इस कारण उन्हें कभी हंसी नहीं आती।

अरिहन्त भगवान इन अठारह दोषों से रहित होते हैं। इन अठारह दोषों में समस्त दोषों का समावेश है। अतः अरिहंत भगवान को समस्त दोषों से निर्दोष समझना चहिये ।

Arihant 34 atishay

अरिहन्त (तीर्थंकर) के 34 अतिशय-

सर्वसाधारण में जो विशेषता नहीं पाई जाती, उसे अतिशय कहते हैं। तीर्थकर में ऐसी चौंतीस मुख्य
विशेषताएँ होती हैं। ये विशेषताएँ या अतिशय कुछ जन्म से ही होती हैं, कुछ केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात होती हैं। वे इस प्रकार हैं-

1.मस्तक आदि समस्त शरीर से बालों का मर्यादा से अधिक (बुरे लगे ऐसे) न बढ़ना।

2.शरीर में रोगादि का न होना तथा रज मैल आदि अशुभ लेप न लगना।

3.रक्त और माँस गौ-दूध से भी अधिक उज्ज्वल धवल और मधुर होना ।

4.श्वासोच्छवास में पद्मकमल से भी अधिक सुगन्ध होना।

5.आहार और निहार चर्म चक्षुवालों द्वारा दिखाई न देना (अवधिज्ञानी देख सकता है ) ।

6.जब भगवान चलते हैं तो आकाश में गरणाट शब्द करता हुआ धर्मचक्र चलता है और जब भगवान ठहरते हैं तब ठहरता है।
7. भगवान के सिर पर लम्बी-लम्बी मोतियों की झालर वाले, एक के ऊपर दूसरा और दूसरे के
ऊपर तीसरा इस प्रकार तीन छत्र आकाश में दिखाई देते हैं।

8. गौ के दूध और कमल के तन्तुओं से भी अधिक अत्यन्त उज्ज्वल बाल वाले तथा रत्नजड़ित डण्डी वाले चॅवर भगवान के दोनों तरफ ढोरे जाते हुए दिखाई देते हैं।

9. स्फटिक मणि के समान निर्मल दैदीप्यमान, सिंह के स्कन्ध के आकार वाले रत्नों से जड़े हुए,
अन्धकार को नष्ट करने वाले, पाद पीठिकायुक्त सिंहासन पर भगवान विराजे हुए हैं, ऐसा
दिखाई देता है।

10. बहुत ऊँची रत्नजड़ित स्तम्भ वाली और अनेक छोटी-छोटी ध्वजाओं के परिवार से वेष्टित इन्द्रध्वजा भगवान् के आगे दिखाई देती हैं।

11.अनेक शाखाओं और प्रशाखाओं से युक्त पत्र, पुष्प, फल एवं सुगन्ध वाला भगवान से बारह गुना ऊँचा अशोक वृक्ष भगवान पर छाया करता हुआ दिखाई देता है।

12. शरद ऋतु के जाज्वल्यमान सूर्य से भी बारह गुना अधिक तेज वाला अन्धकार का नाशक प्रभामण्डल तीर्थंकर प्रभु के पृष्ठ भाग में दिखाई देता है।
( ग्रन्थों में लिखा है कि प्रभामण्डल के प्रभाव से तीर्थकर भगवान के चारों दिशाओं में चार मुख दिखाई देते हैं। इस कारण उपदेश सुनने वालों को ऐसा मालूम होता है कि भगवान का मुख हमारी ओर ही है। ब्रह्म को चतुर्मुख कहने
का भी संभवतः ऐसा ही कोई कारण है।)

13. तीर्थकर भगवान जहाँ-जहाँ विहार करते हैं वहीं की जमीन गड्ढे या टीले आदि से रहित सम
हो जाती है।

14. बबूल आदि के कॉटे उल्टे हो जाते हैं, जिससे पैर में चुभ न सके।

15. सभी ऋतुओं में शरीर के अनुकूल सुहावना मौसम बन जाता है।

16. भगवान के चारों ओर एक-एक योजन तक मन्द-मन्द शीतल और सुगन्धित वायु चलती है,
जिससे सब अशुचि वस्तुएँ दूर चली जाती हैं।

17. भगवान के चारों ओर बारीक- बारीक सुगन्धित अचित्त जल की वृष्टि एक - एक योजन में होती है जिससे धूल दब जाती है।

18, भगवान के चारों ओर देवताओं द्वारा विक्रिया से बनाये हुए अचित्त पाँचों रंगों के पुष्पों की घुटनों प्रमाण वृष्टि होती है। उन पुष्पों का टेंट ( डंठल) नीचे की तरफ और मुख ऊपर की ओर होता है ।

19, अमनोज्ञ (अच्छे न लगने वाले) वर्ण, रस, गंध और स्पर्श का नाश होता है ।

20. मनोज्ञ, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श का उद्भव होता है।

21. भगवान के चारों ओर एक-एक योजन में स्थित परिषद् बराबर धर्मोपदेश सुनती है और वह धर्मोपदेश सभी को प्रिय लगता है।

22. भगवान का धर्मोपदेश अर्धमागधी (आधी मगध देश की और आधी अन्य देशों की मिश्रित) भाषा में होता है।
(भगवं चं णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खति - उववाईसूत्र)

23. आर्य देश और अनार्य देश के मनुष्य, द्विपद ( पक्षी ), चतुष्पद ( पशु ) और अपद ( सर्प ) आदि सभी भगवान की भाषा को समझ जाते हैं। वह भाषा सभी के लिए सुख रूप से परिणत होती थी

24, भगवान का दर्शन करते ही और उपदेश सुनते ही जाति-वैर (जैसे सिंह और बकरी का, कुत्ता और बिल्ली का) तथा भवान्तर (पिछले जन्मों) का वैर शान्त जाता है।

25. भगवान का प्रभावपूर्ण और अतिशय सौम्य स्वरूप देखते ही अपने-अपने मत का अभिमान रखने वाले अन्य दर्शनीवादी अभिमान को त्याग कर नम्र बन जाते हैं ।

26. भगवान के पास वादी वाद करने के लिये आते हैं, किन्तु उत्तर देने में असमर्थ हो जाते हैं।

27. भगवान के चारों तरफ (24-24 योजन तक) ईति-भीति अर्थात् टिड्डी और मूषकों आदि का
उपद्रव नहीं होता।

28. महामारी हैजा आदि का उपद्रव नहीं होता।

29. स्वदेश के राजा का और सेना का उपद्रव नहीं होता

30. परदेश के राजा का और सेना का उपद्रव नहीं होता।

31. अतिवृष्टि अर्थात् बहुत अधिक वर्षा नहीं होती।
32. अनावृष्टि (कम वर्षा या वर्षा का अभाव) नहीं होती।

33. दुर्भिक्ष- दुष्काल नहीं पड़ता।

34. जिस देश में पहले से ईति-भीति, महामारी, स्व - परचक्र का भय आदि का उपद्रव हो वहाँ
भगवान का पदार्पण होते ही तत्काल उपद्रव दूर हो जाते हैं ।

इन चौंतीस अतिशयों में से 4 अतिशय जन्म जात होते हैं। 15 केवलज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् होते
हैं और 15 देवों के किये हुए होते हैं।

Megh kumar story

मेघकुमार की कहानी

मेघकुमार मगध सम्राट राजा श्रेणिक व रानी धारिणी का पुत्र था| राज्य परिवार की परंपरा के अनुसार उसे बचपन में ही पुरुष की 72 कलाएँ सिखाई गई| जब शादी योग्य हुआ तो आठ राज कन्याओं के साथ उसकी शादी हो गई| एक दिन उसने प्रभु महावीर का त्याग, वैराग्य पूर्ण प्रवचन सुना तो उसके मन में दीक्षा लेने के भाव जाग गए| उसने अपने माता पिता से कहा, "आपने दीर्घकाल तक मेरा बड़े ही प्यार से पालन किया है, किन्तु में अब इस संसार के जन्म जरा के दुखों से ऊब चूका हूँ| मेरी भावना प्रभु महावीर के चरणों में संयम धर्म स्वीकारने की है|"माता पिता ने मेघकुमार को बहुत समझाया, संसार के सुखों का लालच दिया, साधुचर्या के कष्ट बताए, पर मेघकुमार नहीं माना| उसने बड़ी लम्बी चर्चा अपने माता पिता से की|
माता पिता को समझ में आ गया की अब इसे रोकना व्यर्थ है, इस पर त्याग का रंग चढ़ चुका है| फिर माता पिता ने धूम धाम से उसका दीक्षा महोत्सव संपन्न करवाया|

मेघकुमार अब भगवन महावीर का शिष्य बन चूका था| प्रथम दिन था| दिन तो साधुचर्या की उपासना करते करते बीत गया| रात्रि आई| साधू जीवन समता और समानता का नाम है, वहाँ राजकुमार और दरिद्रकुमार में भेदभाव नहीं किया जाता| इस कारण उसे सोने के लिए दरवाजे के पास निचले स्थान का आसन मिला| उपाश्रय में अंधेरा था| रात्रि को अन्य मुनि अपनी शारीरिक ज़रूरतों के कारण बाहर आते तो अँधेरे के कारण हर एक के पाँव की टक्कर उसके आसन के साथ लग जाती इसी कारण से वह सो नहीं पा रहा था|

उसने सोचा, "मैं साधू बनकर फंस गया हूँ| जब मैं राजकुमार था तो सभी मेरा सम्मान करते थे| अब जब मैं गृहत्यागी हो गया हूँ तो कोई मेरा सम्मान नहीं करता| सब मुझे ठोकर मार रहे हैं| चलो रात्रि समाप्त होने दो, सुबह होते ही मैं प्रभु महावीर को कहकर वापस घर चला जाऊंगा|"

इस प्रकार उसके मन में विचारों की उथल पुथल मची हुई थी| सुबह हुई| सभी साधू साध्वी प्रभु महावीर के दर्शनों को पधारे| प्रभु महावीर ने मेघमुनि को देखते ही कहा, "मेघ! क्या तुम साधना के पथ से पीछे हटने का विचार कर रहे हो? युद्ध के मैदान में पँहुच कर वीर हमेशा आगे कदम बढाता है| तुम वीर हो, फिर भी कायर की तरह पीछे हटना चाहते हो| इस थोड़े से संकट से हार गए| लो सुनो, मैं तुम्हें तुम्हारे पिछले भव की कहानी सुनाता हूँ जिससे तुम्हें पता चले की तुमने पशुभव में भी कितनी धर्म आराधना थी जिसके प्रभाव से तुम्हें यह जीवन और इसके सुख मिले|"
मेघमुनी प्रभु महावीर के संबोधन से सावधान होकर अपने पुर्वभव की कथा सुनने लगा|

"पूर्वभव की बात है, विन्ध्याचल के सघन जंगलों में सुमेरुप्रभ नाम का एक सफ़ेद हाथी रहता था, वह अपने झुण्ड का राजा था| अपने विशाल परिवार का स्वामी था| एक बार उस जंगल में आग लगी| उस जंगल में दावानल के कारण ज्वालाएँ आकाश को चूमने लगी| पशु पक्षी सभी उस स्थान को छोड़ने लगे| सभी जानवर आग में जलने लगे| सुमेरुप्रभ भी अनेक हाथियों के साथ घायल हो गया| कुछ दिनों बाद आग शांत हो गई| इस विनाश लीला को देख सुमेरुप्रभ चिंतित हो गया|

सुमेरुप्रभ अपना जीवनकाल पूर्ण कर दुसरे जन्म में भी हाथी बना| उसे अपने पूर्वभव की स्मृति थी| इस जन्म में भी आग द्वारा हनी नहीं हो यही सोचकर सुमेरुप्रभ ने नदी के किनारे एक विशाल मण्डप बनाया| लम्बी दुरी तक उसने पेड़ पौधे, झड झंखाड़ उखाड़ कर जंगल को बिलकुल साफ़ कर दिया| कहीं पर घास का एक तिनका भी नहीं छोड़ा| इस प्रकार निर्माण कर सुमेरुप्रभ आनंद के साथ रहने लगा|

एक समय की बात है| जंगल में फिर दावानल सुलग उठा| जंगल के सभी जीव जंतु प्राणों के भय से अपने वैर भुलाकर उस मण्डप में एकत्रित होने लगे| हाथी, सिंह, खरगोश, लोमड़ी सभी को अपने प्राण बचाने की चिंता थी| सुमेरुप्रभ भी वहाँ आ पँहुचा, पर उसका बनाया हुआ मण्डप अब पशु पक्षियों से भर चूका था| वह भी एक किनारे जाकर खड़ा हो गया| उसने किसी प्राणी को कोई कष्ट नहीं पंहुचाया| जंगल के भयानक दावानल से वह स्थान पूर्ण रूप से सुरक्षित था|

खड़े खड़े अचानक सुमेरुप्रभ हाथी को खुजली होने लगी| उसने अपना आगे का पाँव खुजलाने के लिए उठाया, ज्यों ही वह अपना पाँव नीचे पुन: नीचे रखने लगा तो उसने देखा एक नन्हा सा खरगोश उसके पाँव वाले स्थान पर आकर बैठ गया और दावानल में मृत्यु के भय से थर थर काँप रहा है| कांपते हुए खरगोश को देखकर सुमेरुप्रभ के मन में दया आ गई, उसने करुणावश अपना पाँव ऊपर उठाए रखा, पैर नीचे नहीं रखा| खरगोश इस पाँव के नीचे वाले स्थान में शरण लिए हुए था और हाथी का पाँव अधर में लटक रहा था|

दो दिन तक जंगल जलता रहा| तीसरे दिन आग शांत हुई| सभी जानवर अपने अपने स्थानों पर चले गए| खरगोश का बच्चा भी लौट रहा था| सुमेरुप्रभ ने जब नीचे का स्थान खाली देखा तो उसने अपना पाँव सीधा जमीन पर रखना चाहा, पर पाँव जमीन पर नहीं टिका क्यों की वो अकड़ चूका था| अब हाथी ने जोर देकर रखना चाहा तो भरी शरीर के कारण संभल नहीं सका और भूमि पर गिर गया|

तीन दिन की भूख प्यास के कारण वह पुन: उठ नहीं सका| पर इस हाल में भी उसके मन में अपूर्व शांति थी, क्यों की उसने एक छोटे से जीव पे दया की थी|

प्रभु महावीर ने मेघ के पुर्वभव की साडी कहानी सुनाते हुए कहा, "पूर्वभव में खरगोश पर करुणा करने वाले हाथी तुम थे| पशु के भव में करुणा के कारण तुम्हें राज्य परिवार का सुख और वैभव मिला, और आज संयम मार्ग की इस मामूली सी बाधा से घबरा गए|"

प्रभु महावीर के उपदेश से मेघमुनि पुन: जागृत हो गए और अब संयम पथ पर पुन: बढ़ने लगे| लम्बे समय तक तप एवं साधना की जिसके परिणाम स्वरूप विजय नामक अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए|

King Shrenik of Magadh had a beautiful queen named
Dharini. Once while she was sleeping, she dreamt that a
white elephant was entering her mouth. She immediately
woke up and told the king about the dream. Shrenik
knew that it was an auspicious dream. He called the
fortunetellers who stated that the queen would get a
handsome and lovable son who would have marvelous
achievements to his credit. The king and queen were
very much pleased to hear this.
During the third month of her pregnancy, Dharini had an
irresistible urge to ride in the country on an elephant
with the king during rain, while the sky is full of clouds
of different hues and there are frequent flashes of
lightening. In most of India, it rains only during the
monsoon, which occurs from June to October. Dharini
however had the urge during off-season. The fulfillment
of her urge was therefore a problem. In order to see that
she is not affected by the unsatisfied urge, king asked
his eldest son and the Prime Minister Abhaykumar to
devise some way to satisfy that urge. Abhaykumar had
a friend who could make miracles. He exhorted that
friend to cause untimely rain etc. for the sake of his
step mother. That friend arranged exactly according to
Dharini's urge. She therefore could ride on an elephant
with the king and satisfied her urge.
In due course she gave birth to a very handsome,
attractive boy. Rain in Indian language is called Megh.
In memory of the pregnancy urge of Dharini, the boy
was named Meghkumar. At the age of 8 he was sent to
school where he learned all 72 arts and crafts and
became known as an accomplished youth. He was then
married to 8 beautiful girls with whom he enjoyed all
the pleasures of the worldly life. Once Lord Mahaveera
came to Rajgruhi and camped in Gunashil monastery.
Almost every resident of Rajgruhi used to go to His
sermon. Meghkumar went as well, and was very much
impressed. Realizing the transitory nature of the worldly
situations, as explained by the Lord, he decided to
renounce his worldly life. But his parents were sad to
hear about his intentions. They tried every means to
stop him from renouncing. He however remained very
firm. But in order to satisfy his parents' wish, he agreed
to become the king for one day and was coronated with
all the royal pomp. Immediately after that, he left
everything and became a possessionless monk of Lord
Mahaveera.
At night, he was allotted a place near the door for
spreading his bed. During the night, monks going for
bathroom had to walk past his side. Since no lamps are
allowed in the monks' residence, they happened to
trample his bed and at times his body as well. Poor
Meghkumar could not sleep for the whole night. He was
raised in all the luxuries and even monks used to treat
him with regards. It was therefore awful for him to face
the feet of the monks and the dirt that was brought all
over his bed and body. He had to stay sleepless for the
entire night. He felt that he could not bear that sort of
miserable life and decided to give up renouncement.
In the morning, he went to the Lord to seek permission
to return home. The Lord was aware of the discomforts
that he had faced. He however asked him, 'Megh, do
you remember the discomforts that you had faced during
the previous life?' Since Meghkumar did not, the Lord
described it as the following:
"During the previous life you were the king of elephants
and were known as Meruprabha. Once there was a fire,
which you escaped narrowly. That reminded you of the
terrible fire you had faced in still earlier life. For a
shelter from fire, you therefore opened up a vast stretch
of land by removing all plants, bushes, and trees so
that all animals could get refuge in case of a fire. You
also weeded out grass that grew there.
Again, there was a wild fire in your forest. All the
animals came running and took refuge on that stretch.
You also were there. During that time, you raised your
foot to scratch your body because of an itch. That very
time a rabbit was pushed in that space by the pressure
of other animals. As you tried to put the foot back, you
felt the presence of the rabbit and decided to hold the
foot up in order to save it. The fire raged for two and a
half day during which you continued to hold your foot up
out of compassion for the rabbit.
At the end of fire as the animals retreated, you tried to
lower your foot. It had however stiffened during that
time. You could not maintain your balance and fell
down. You felt agonizing pain and could not get up.
That way you spent three days and night facing much
affliction and acute pain. Ultimately you left that body
and were born here as the prince of Shrenik, because of
your compassion for the rabbit. If you could face that
much distress for the sake of rabbit and gained the
valuable human life in return, how come you cannot
face the foot dirt of your fellow monks in the interest of
gaining lasting happiness?"
Meghkumar was impressed by the Lord's words and
realized that he should stay on in his own interest. He
requested the Lord to initiate him afresh since he had
virtually broken his vow of the monkhood by strongly
desiring the worldly life. The Lord did accordingly and
Meghmuni, as he was called after that, started leading
rigorous, austere life. Fasting for days together, he
stayed, most of time, in meditation in order to eradicate
his Karmas. The Lord and Gautam-swami too praised
him for that. When his body became very weak and
could no longer observe the rigors of monkhood, he
decided to observe fast unto death. That he did for a
month on mount Vaibhargiri near Rajgruhi and took
birth in heaven. The Lord has stated to Gautam-swami
that at the end of the heavenly life, he would be reborn
in Maha-Videha and would attain salvation.
Key Message:
Here is a great example of compassion. An elephant
bears discomfort and pain to save a little animal. We
are more developed and rational beings. We should
learn from these animals to be helpful to each other.
Besides, when one takes an oath to lead the life a monk,
one should not revert to worldly life. This is a very
tough and rigorous life meant to give an understanding
of the true nature of the soul. In order to achieve this
understanding, one must put aside the worldly life
permanently because it tends to distort thing. Suffering
occurs because of one's past karma so one should
accept it and focus on the soul and self-realization.

Shravasti tirth history

श्रावस्ती तीर्थ 
श्री संभवनाथ भगवान 
   यह तीर्थ आदिनाथ भगवान के समय का है। प्रभु ने देश को बावन जनपद में विभाजित किया था उसमें कौशल देश की यह श्रावस्ती राजधानी थी। वहाँ के राजा जितारी की सेना रानी माता की कुक्षी में जन्मे हुए श्री संभवनाथ भगवान का च्यवन , जन्म , दीक्षा और केवलज्ञान कल्याणक से यह भूमि पावन हुई है। शांतिनाथ भगवान ने यहाँ विचरण किया था। भगवान महावीर के समय यह नगरी वैभवशाली थी। प्रसंन्नजित राजा प्रभु के परम भक्त थे। यह नगरी को कृणाल नगरी , चंद्रिकापुरी भी कहते थे। यहाँ अनेक जैन मंदिर स्तूप थे , जिसका निर्माण संप्रति ने कराया था। चौदहवीं सदी में विशालकोट की मध्य में रत्नविभूषित जिन भवनों एवं अनेकों जिन प्रतिमा थी। अढारवी सदी के आसपास क्षति हुई। सहेत महेत के खंडेरो में से प्राप्त अनेकों जिन प्रतिमाए मथुरा के म्युझीयम में है। एक प्राचीन मंदिर मिला था वो पुरातत्व हस्तक है। जो संभवनाथ प्रभु का जन्म स्थान है। 

                    उनके पास ही वर्तमान श्रावस्ती गांव के मुख्य मार्ग पर भव्य जिनालय में परिकर युक्त श्वेतवर्ण के श्री संभवनाथ भगवान की प्रतिमा मूलनायक बिराजमान है। केशी गणधर और गौतम स्वामी का प्रथम मिलन यहाँ हुआ था। गोशालक ने महावीर स्वामी पर तेजोलेश्या यहाँ छोड़ी थी। जमाली यहाँ के है। केशी गणधर यहाँ से मोक्ष में गये थे। यहाँ धर्मशाला और भोजनशाला की व्यवस्था है। यह तीर्थ उत्तर प्रदेश के अयोध्या से 109 कि. मी. और बलरामपुर से 17 कि. मी. है।

 શ્રી શ્રાવસ્તિ તીર્થ- (સાવત્થિ )

(અસંભવ ને સંભવ કરનારા ) શ્રી સંભવનાથ પ્રભુ ના ચાર કલ્યાણક (નિર્વાણ સિવાય ના )અને ચરણ રજ થી આ ભૂમિ કણકણ થી પવિત્ર છે 

તીર્થ ના અન્ય નામો સાવસ્તિ , શરાવતી , ધર્મ પૂરી , ચમ્પક પૂરી , ચંદ્રિકા પૂરી , કુણાલ નગર 

અજીત શાંતિ માં શ્રી નંદિષેણ મુનિ (રચયિતા શ્રેણિક મહારાજા ના પુત્ર અથવા નેમિનાથ પ્રભુ ના ગણધર કોણ છે તે મતાંતર છે )એ પણ આ નગરી નો ઉલ્લેખ કર્યો છે 
સાવત્થિ પુવ્વ પત્થિવં ચ 

પ્રભુ વીર ઉપર ગૌશાળાએ તેજોલેશ્યા અહીં છોડેલ 

તેજોલેશ્યા ની ગરમી  થી  6 મહિના રક્ત ના ઝાડા થાય છે તેના થી સિંહ અણગાર કલ્પાંત કરતા હતા અને તેમને બોલાવી ને કહ્યું કે રેવતી શ્રાવિકા ને ત્યાં બીજોરાપાક છે તે વહૉરાવવા દ્વારા રેવતી શ્રાવિકા એ અહીં તીર્થંકર નામકર્મ ઉપાર્જન કરેલ (સિંહ અણગાર પર પણ કેવો અનુગ્રહ આવ્યો હશે કે એમના કેવળજ્ઞાન માં તે કલ્પાંત નું પ્રતિબિંબ પડ્યું  )

પ્રભુ ના દશ શ્રાવક માં થી બે શ્રાવક અહીંના હતા 

અહીંના તિણ્ડુક વન માં શ્રી ગૌતમ સ્વામી અને પાર્શ્વ પ્રભુ ના  કેશી ગણધર નું મિલન અહીં થયેલ અને જે ચર્ચા વિચારણા થઈ તે ઉતરાધ્યયન સૂત્ર માં છે 

પ્રભુ ના  જમાઈ જમાલી અહીંના હતા 

અહીંયા જીવિત સ્વામી પ્રતિમાઓ હતી (બૃહદકલ્પ સૂત્ર )

કપિલ કેવલી અહીં સિદ્ધ થયા 

ભદ્ર મુનિ જ્યારે અહીં થી વિહાર કરતા હતા ત્યારે એમને ચોર સમજી તેમનું અંગ છેદ કરેલ અને તેના ઉપર મીઠું નાખેલ તે ઉપસર્ગ સમતાભાવે સહન 
કરી અહીંથી સિદ્ધ થયા 

શ્રી રામચંદ્ર જી ના પુત્ર લવ અને કુશ ને આ રાજ્ય આપ્યું 

સ્કંદક આચાર્ય 500 શિષ્યો સાથે  ઘાણી માં પિલાયા તે સ્કંદક મુનિ અહીંના હતા 

કુંભકાર શ્રાવકે પ્રિય દર્શના ને અહીંયા જ અંગારા કણ નાખી કપડું બળતા પૂરું બળ્યું હોય તો જ બળ્યું કહેવાય એ જમાલી ના મત નો ભ્રમ ભાંગી પ્રભુ વીર ના માર્ગ માં પાછા લાવ્યા 

ક્ષુલ્લક મુનિ સંયમ છોડી સંસાર માં પાછા આવવા 36 વર્ષ પાળી ઉપાશ્રય થી નીકળી ગયા ત્યાં રસ્તા માં નાટક જોવા ઊભા રહ્યા એક નટ નાચતા નાચતા થાકી ગઈ છે પણ રાજા ઇનામ નથી આપતો એટલે નૃત્ય માં ઉત્સાહ વધે માટે તે ગાય છે 

*બહુત ગઈ થોડી રહી થોડી સી અભી જાત રે*

નાચતા નાચતા બધો સમય ગયો હવે થોડો જ શેષ સમય રહ્યો છે એ પણ જતો રહેશે હવે નાચવા નું રોકવા નું નથી ઇનામ નો અવસર આવી ગયો છે 

આ સાંભળી ક્ષુલ્લક મુનિ પુનઃ સ્થિર થયા 

પ્રભુ શાંતિનાથ અને મુનિસુવ્રત સ્વામી અને પ્રભુ વીર પણ અહીં પધારેલા છે 

બુદ્ધ નો ધર્મ અહીંથી પ્રસારિત થયેલ

મણિભદ્રવીર ના પ્રભાવ થી અહીં સૂર્યોદય સમયે જિનાલય ના દ્વાર ખુલ્લી જતાં અને સૂર્યાસ્ત સમયે બંધ થઈ જતાં 

દરવર્ષે જે મેળો અહીંયા ભરાતો તેમાંથી તે દિવસે એક ચિત્તો (અન્ય જગ્યા એ વાઘ જણાવે છે )આવતો હતો અને બહાર બેસતો હતો પણ કોઈને ઉપદ્રવ નહોતો કરતો અને આરતી થયા બાદ નીકળી જતો

અલ્લાઉદ્દીન ખિલજી ના મલિકહવસે અહીં પ્રતિમાઓ તોડીને બહુનાશ કર્યો હજી પણ થોડો ભાગ જોવા મળે છે પૂર્વે અહીંયા 17 જિનાલય હતા 

સ્થાનાંગ સૂત્ર માં દશ માં અધ્યયન માં દશ રાજધાની માં આનું પણ એક નામ છે તે ઉપરાંત ભગવતી સૂત્ર , છેદ સૂત્ર , આવશ્યક ચૂર્ણિ , ત્રિષષ્ઠિ માં પણ આ નગરી નો ઉલ્લેખ છે 

ત્રીજા ચક્રવર્તી પણ અહીંના હતા 

જ્યારે પ્રભુ વીર કાર્યોત્સર્ગ માં હતા ત્યારે 
જે ઘાસ માં લાગતા પ્રસરાયેલી આગ થી પ્રભુ ના પગ સુધી આવી ગઈ તે અહીં 

સંગમદેવે અનેક ઉપસર્ગ કર્યા બાદ બ્રજગાંવ થી અહીં આવતા ઉદ્યાન માં ધ્યાનરૂઢ થયેલા ત્યારે શ્રાવસ્તિ માં ઉત્સવ ચાલતો હતો લોકો વ્યસ્ત હતા કોઈએ પણ પ્રભુ વીર સામે ધ્યાન નહીં આપ્યું આખું ગામ મંદિર ની બહાર એકઠું થયું ત્યાં ના લોકો મૂર્તિ ને શોભિત કરીને રથ માં બેસાડી મૂર્તિ સ્વયં ચાલવા લાગી અને તે મૂર્તિ પ્રભુ વીર ના ચરણો માં આવીને પડી અને સૌ એ પ્રભુ વીર નો જયજયકાર કર્યો (શેષ કાળ માં પણ પ્રભુ અહીંયા ઘણી વાર આવેલા )

હલ્લ વીહલ્લ ની દીક્ષા પણ અહીં થયેલ

અહીંયા ભૂગર્ભ માં થી નીકળેલ પ્રભુ વીર ની મૂર્તિ હાલ લખનૌમાં મ્યૂજિયમ માં છે 

આ તીર્થ અયોધ્યા થી 109 km
અને બલરામપૂર થી 17 km છે .

પ .પૂ વીરસેન સૂરી મ .સા (પ .પૂ લબ્ધિસૂરી મ .સા )

SHRI SHRAVASTI TIRTH
PRESIDING DEITY AND LOCATION :
Sri Sambhavnath Bhagwan in white color seated in a lotus posture and of height 105Cms (Dig) and Sri sambhavnath Bhagwan in white color, seated in a lotus posture (Shve) in a shrine located on the main Road in Shravasti village.

ANTIQUITY AND SALIENT FEATURES :

 
History of this shrine commences with the history of the 1st Tirthankar Sri Adhishvar Bhagwan. One of the 52 Janapads into which the country was divided by Sri Adhishvar Bhagwan was named "Koshal". Shravasti the capital of Koshal.

Several illustrations monarchs ruled here thereafter Bhagwan Sri Adhinath including king Jitari, father of 3rd Tirthankar and Sri Sambhavnath. During the time of Bhagwan Mahavir, king Presenjit rule here. He ws not only a follower a Jain religion but was also a great devotee of Sri Mahavir. Emperor Shrenik of Magadh kingdom who was the chief listener of Sri Bhagwan Mahavir's discourses was married to his sister. The city was very prosperous at that time. It was also called Kunalnagiri and Chandrikapuri. There used to be numerous Jaintemples and stupas here during that period. Even Emperor Ashok and his grandson King Samprati had got built here some temples and stupas. In a ancient book called ": Bruhat Kalp" the glory of this shrine has been referred to. The 5th Century Chinese traveler Fa-hi-yan has made a mention of this city in his notes. The 7th Century Chinese traveler Hu-en-sing while referring to this city has called it " Jetvan Monastery". Thereafter the name of the city remained as "Manikapuri" fro some time.

 
In year 900 A.D. king Mayudhwaj, 925 A.D. King Hansdhwaj, 950 A.D. King Makradhwaj, 975 A.D.King Sudhandwadhwaj and in 1000A.D. King Suhurddhwaj ruled here. All these were Jain kings. Dr. Benett and Dr. Vincent have referred to them as Jain kings. They were all brave and full of self-respect.

King Suhurddwaj by his bravery had kept his flag fluttered over several staes in India. By defeating the invading hordes of Muslims in a crushing manner, he had not only protected the country and its various religious holy shrines but also had enhanced the prestige of Hindus – the fact which will be remembered forever by the prosperity. Also at no place, the army of Mohamed Gazni had suffered such a humiliating defeat. Since when thereafter, this city was being called "Sahetmahet" is not definitely known and is still a subject of study and research.

During 14th Vikram Century, in the composition entitled "Vividh Tirthkalp" by Acharya Sri Jinaprabhasurishvarji this shrine is referred to as "Mahid". It is stated that at that time there was here a "Jinabhuvan" around which there was a wide fort housing a temple with numerous images of Jain Tirthankars and many small sanctum chambers dedicated to lesser Gods (Dev-Kulikas) and it had while set in pearls and other precious stones. At first the gates of this temple got closed automatically after the evening Aarti ceremony and similarly opened at the sunrise owing to some powerful force of yaksha Manibhadra. On the day of the annual festival, a certain tiger used to visit the place and sit there till the Aarti ceremony wasover. There is a reference about this in the book mentioned above.

During the period of Ala-udin-khilji, this temple isbelieved to have been totally destroyed. In the 18th century, Sri Vijaysagarji and Sri Saubhagyasurishvarji have made a reference to this place.

Shravasti has become holy because the four kalnayaks Viz Chyvan, Janm, Diksha and Keval Gnan of the 3rd TIrthankar of the set of present 24 of the current Cycle of Time have taken place here. Sri Shantinath Bhagwan had also visited this place. Sri Bhagwan Mahavir came here several times spending his Chaturmas andon several occasions Samosarans were erected for him to give discourses on Jain religion when thousands of devotees were benefited. The first meeting between Sri Keshi Muni, a son like disciple of Sri Parshvanath Bhagwan and Sri gautam Swamiji, the chief disciple of Sri Bhagwan Mahavir tool place on this land. The son-in-law of Sri Bhagwan Mahavir,also the maternal nephew Jamali belonged to thisplace. He got himself initiated here at the hands of Sri Mahavir. In the end it washerein the garden known as "Koshtak" that he had started his campaign ofeven opposition to Mahavir. Goshal had struck Mahavir here with his lightening ray produced out of his body. Muni Sri Kapil had attained Moksha from this place. Brave and illustrious kings such as Prasenjit, Suhurddwaj and other who had carried out numberless activities for the glorification of Jainism happened to be the rulers of this place. The land with the dust of all its particles has thus become holy and worthy of worship. At present only this Digamber temple exists here. The construction of a new Shwetamber temple is going on.

Adjacent to present Shravasti while undertaking excavations in the area of "Sahetmahet", many old idols and rock inscriptions are found here which are preserv

Mahabalipuram

...........*जिनालय दर्शन*........... *महाबलीपुरम तीर्थ* लॉकडाउन के चलते हमारी कोशिश है कि प्रतिदिन आपको घर पर प्रभु दर्शन करा सकें। आज हम आप...