Tuesday, 2 June 2020

Samvay karan

पांचर्वां समवाय : पार्ट(6)
एक विश्लेषण -

पाचवें समवाय मे पाँच क्रिया, पाँच महाव्रत, पाँच कामगुण, पाँच आश्रव द्धार, पाँच संवर द्वार, पांच निर्जरास्थान, पांच समिति, पांच अस्तिकाय, रोहिणी, पुनर्वसु, हस्त, विशाखा धनिष्टा नक्षत्रो के पांच-पाँच तारे,
नारको और  देवों की पांच पल्योपम, और पांच सागरोपम की स्थिति तथा पांच भव कर मोक्ष जाने वाले भवसिद्धिक जीवो का उल्लेख है ।

सर्वंप्रथम क्रियाओ का उल्लेख है । क्रिया का अर्थ "करण" और व्यापार" है । कर्म-बन्ध मे कारण बनने वाली चेष्टाए "क्रिया" हैं | दूसरे शब्दो मे यो कह सकते हैं कि मन, वचन  और काया के दुष्ट व्यापार-विशेष को क्रिया कहते है । क्रिया कर्म-बन्ध की मूल है । वह  संसार जन्ममरण की जननी है । जिससे कर्म का आश्रव होता है, ऐसी प्रवृत्ति क्रिया कहलाती है । स्थानांगसूत्र मे भी क्रिया के जीव- क्रिया अजीव क्रिया और फिर जीव-अजीव क्रिया के भेद-प्रभेदो की चर्चा है । यहां पर मुख्य रूप से पाँच क्रियाओ का उल्लेख है। प्रज्ञापना-सूत्र मे पच्चीस क्रियाओ का भी वर्णन मिलता है । जिज्ञासु को वे प्रकरण देखने चाहिए । क्रियाओ से मुक्त होने के लिए महाव्रतो का निरूपण है ।
महाव्रत श्रमणाचार का मूल है। आागम साहित्य में महाव्रतो के सम्बन्ध मे विस्तार से विश्लेषण किया गया है । आगमो मे महाव्रतो की तीन परम्पराएँ मिलती हैं । आचारांग मे अहिंसा सत्य, बहिद्धादान इन तीन महाव्रतो का उल्लेख प्राप्त होता है । स्थानांगसूत्र,  उत्तराध्ययन और  दीर्घनिकाय मे चार याम का वर्णन है ।
वे ये हैं--अहिंसा, सत्य, अचौयं और बहित्वादान । बौद्ध साहित्य में अनेक स्थलो पर चातुर्याम का उल्लेख हुअा है।

 प्रश्न व्याकरण के संवर प्रकरण में महाव्रतो की चर्चा है दशवेकालिक सुत्र मे प्रत्येक महाव्रत का विस्तृत
विश्लेषण किया गया है। भगवती सूत्र में प्रत्याख्यान के स्वरूप को बताने के लिये महाव्रतो का उल्लेख है।
तत्वार्थसूत्र और उसके व्याख्यासाहित्य मे भी महाव्रतो के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है । जिसे जैन साहित्य मे महाव्रत कहा है उसे ही बोद्ध साहित्य मे दश कुशलधर्म कहा है । उन्होने दश कुशल धर्मों का समावेश इस प्रकार किया है-

कुशलधर्म'
(१) प्राणातिपात एव (२) अदत्तादान से विरति
(३) काम मे मिथ्याचार से विरति
(९) व्यापाद से विरति
(४) मृषावाद (५) पिशुनवचन (६) परुषवचन (७) संप्रलाप से विरति(८) अमिष्या विरति ।

महाव्रत
(१) अहिसा(२) सत्य (३) अचौर्य (४) ब्रह्मचर्यं
(५) अपरिग्रह

अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच महाव्रत असंयम  के स्रोत को रोककर
संयम के द्वार को उद्घाटित करते है । हिंसादि पापो का जीवन भर के लिये तीन करण और  तीन योग मे त्याग kiya जाता है । महाव्रतो मे सावद्य योगो का पूर्ण रूप से त्याग होता है । महाव्रतो का पालन करना तीक्ष्ण तलवार की धार पर चलने के सदृश है । जो संयमी होता है वह इन्द्रियो के कामगुणो से बचता है । आश्रवद्धारो का निरोध कर संवर और निर्जरा से  कर्म को नष्ट करने का  प्रयत्न करता है ।
इसके पश्चात् शास्त्रकार ने पांच  समितियो का उल्लेख किया है । सम्यक् प्रवृत्ति को समिति कहा गया हैं ।मुमुक्षुओ की शुभ योगो मे प्रवृत्ति होती है | उसे भी समिति कहा है । ईर्यासमिति अादि पांच को इसीलिए समिति संज्ञा दी है । उसके पश्चात् पंच अस्तिकाय का निरुपण किया गया है । पचास्तिकाय जैन- दर्शन की अपनी देन है । किसी भी दर्शन ने गति और स्थिति के माध्यम के रूप मे भिन्न द्वव्य नही माना है । वैशेषिक दर्शन ने उत्क्षेपण आदि को द्रव्य न मानकर कर्म माना है ।

 जैनदर्शन ने गति के लिए धर्मास्तिकाय और स्थिति
के लिए अधर्मास्तिकाय स्वतन्त्र द्रव्य माने हैं । जैनदर्शन की आाकाश विषयक मान्यता भी अन्य दर्शनो से विशेषता लिये हुए है । अन्य दर्शनो ने लोकाकाश को अवश्य माना है पर अलोकाकाश को नही माना । अलोकाकाश की मान्यता जैनदर्शन की अपनी विशेषता है । पुद्गल द्रव्य की मान्यता भी विलक्षणता लिये हुए है । वेशेषिक आदि दर्शन पृथ्वी आदि द्रव्यो के पृथक्-पृथक जातीय परमाणु मानते है । किन्तु जैनदर्शन पृथ्वी आदि का एक पुद्गल द्रव्य मे ही समावेश करता है। प्रत्येक पुद्गल परमाणु मे स्पर्श, रस, गन्ध और रूप रहते है । इसी प्रकार इनकी पृथक्-पृथक् जातिया नही, अपितु एक ही जाति है । पृथ्वी का परमाणु पानी के रूप मे बदल सकता है और पानी का परमाणु अग्नि मे परिणत हो सकता है । साथ ही जैनदर्शन ने शब्द को भी पोद्गलिक माना है । जीव के सम्बन्ध मे भी जैनदर्शन की अपनी विशेष मान्यता है । वह संसारी आत्मा को स्वदेह-परिमाण मानता है । जैन-दर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी भी दर्शन ने आत्मा को स्वदेह-परिमाण नही माना है ।
इस  तरह पांचवे समवाय मे जैनदर्शन सम्बन्धी विविध पहलुओ पर चिन्तन किया गया है ।

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