Friday, 19 June 2020

Pratima ke darshan kyo

हमें प्रतिमा के दर्शन क्यों करने चाहिए
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हमें प्रतिमा के दर्शन क्यों करने चाहिए ये सवाल ऐसा है जैसे कि किसी प्यासे इंसान से पूछा जाए कि पानी क्यों पीना है।
अमिय भरी मूर्ति रची ,उपमा न घटे कोय।शांत सुधा रस झीलती र निरखत तृप्ति न होय।
हे प्रभो!
इस जगत में यदि आपकी प्रतिमा नहीं होती तो
हम आपके स्वरूप को कैसे जान पाते?
जिन प्रतिमा से तो प्रभु के स्वरूप का भान होता है।
अतः
प्रभु के समान 
ही प्रभु प्रतिमा से भी
हमारा कल्याण होता है।
प्रभु की शांत मूर्ति के दर्शन से तथा उनके गुणगान में लीन होने से चित्त में दुष्ट भाव तथा बुरे विचार टिक नहीं सकते। श्री वीतराग देव की शांत मुद्रा के दर्शन के साथ ही रोम रोम में प्रेम उमड़े बिना नहीं रहता 
वीतराग देव की आराधना मुख्यतया उनकी प्रतिमा के द्वारा ही संभव है।
अरिहंत परमात्मा की भक्ति का सर्व श्रेष्ठ उपाय उनकी प्रतिमा की भक्ति करना है।
अरिहंत की प्रतिमा अरिहंत स्वरूप ही है।उनकी प्रतिमा के दर्शन करने से अपनी आत्मा का उपयोग भी अरिहंताकार बनता है।और अरिहंताकार उपयोग में लीन बनी आत्मा आरहंत्य  स्वरूप का साक्षात् अनुभव करती है।
रूपी आलंबन बिना अरूपी का ध्यान शक्य नहीं।
सर्वश्रेष्ठ रूपी आलंबन अरिहंत परमात्मा का है और उस आलंबन के लिए अरिहंत की प्रतिमा ही श्रेष्ठ उपाय है।
प्रतिमा सिर्फ प्रतिमा ही नहीं होती,वो स्वरूप ही होती है भगवान का। उसमें भगवान के गुणों का आरोपण किया जाता है।प्रतिमा को देखकर मन में वीतरागता के भाव जागृत होते हैं।
भगवान के गुणों का स्मरण तथा ध्यान करने करने के लिए जिन मंदिर में जिन प्रतिमा की स्थापना की जाती है।
श्री जिन की मूर्ति देखकर विचार पैदा होता है ,' अहो!यह मुख कितना सुन्दर है कि जिसके द्वारा किसी के लिए भी अपशब्द नहीं बोला गया,जिससे कभी हिंसक,कठोर अथवा कड़वे वचन नहीं निकले।उसमे रही जीभ से रसेंद्रिय के विषयों का कभी भी राग द्वेष से सेवन नहीं किया गया,परन्तु उस मुख द्वारा धर्मोपदेश देकर अनेक भव्य जीवों को इस संसार सागर से पार उतारा गया है।इसलिए ये मुख तो हजारों बार धन्यवाद का पात्र है।"
भगवान की नासिका द्वारा सुगंध या दुर्गंध रूप घ्रा नेंद्रिया के विषयों का राग अथवा द्वेष पूर्वक उपभोग नहीं किया गया।
इन चक्षुओं द्वारा पांच वर्ण रूप विषयों का पल भर के लिए भी राग द्वेष पूर्वक उपभोग नहीं किया गया।केवल वस्तु स्वभाव तथा कर्म की विचित्रता का विचार कर भगवान के नेत्र सदा समभाव में रहते हैं।
इन दोनों कानों के द्वारा विचित्र प्रकार की राग रागीनियो का राग पूर्वक श्रवण नहीं किया गया,अपितु मधुर अथवा कटु जैसे शब्दों को राग द्वेष रहित होकर सुना।
इस शरीर को किसी जीव की हिंसा अथवा अदत्त ग्रहण आदि का दोष नहीं लगा।इसका उपयोग केवल जीव रक्षा निमित्त तथा सभी को सुख मिले ,उसी ढंग से हुआ है ।इस देह ने गांव गांव विहार कर अनेक जीवों के सांसारिक बंधनों को तोड़ा है।तथा सभी कर्मो का क्षय करके केवल ज्ञान तथा केवल दर्शन को प्रगट किया है।
ऐसे अनंत उपकारी प्रभु की शांत मुद्रा देखकर अन्तःकरण में ये भावना उत्पन्न होती है इनकी यथा शक्ति भक्ति करना मेरा परम कर्तव्य है।यदि मैं प्रभु की भक्ति करती हूं तो मै स्वयं तिरने के साथ साथ अन्यों को भी तिराने में निमित्त बनूंगी क्योंकि मेरी भक्ति देखकर दूसरे लोग भी उसका अनुसरण करेंगें।
प्रतिमा के दर्शन होते ही नमो जिनानम बोलते हैं तभी से हमारे अंदर विनय गुण प्रगट होता है।
प्रभु के सामने जाते ही मन में भावना आती है हे प्रभु आप राजा थे, चक्रवर्ती थे फिर भी आपने सब त्याग दिया और मैं तुच्छ प्राणी हूं जो कुछ ना होते हुए भी आपके पथ पर नहीं चल पा रही हूं।प्रभु मै कब आप जैसी बनूंगी,कब संसार से भव भ्रमण समाप्त होगा।इस प्रकार
प्रभु तो अनेक गुणों से परिपूर्ण हैं और मै सभी प्रकार के दुर्गुणों से परिपूर्ण हूं इसी कारण इस संसार रूपी वन में अनंत काल से भटक रही हूं 
आज मेरे  भाग्योदय से मुझे भगवान की प्रतिमा के दर्शन हुए,प्रतिमा के दर्शन होते ही मन मयूर नाच उठता है,मन करता है कि वहां बैठकर प्रभु को निहारती रहूं और भगवान से बात करती रहूं,आंखो से प्रभु के प्रेम की अश्रु धारा बहती रहती है , हे प्रभु कब मेरे कर्म क्षय होंगे और कब मैं आप जैसी बनूंगी।
हे निरंजन!निराकार! निर्मोह!अजर!अमर!अकलंक! सिद्ध स्वरूपी! सर्वज्ञ!वीतराग!आपके गुणों का गुणगान करते हुए मै आपकी स्तुति करती हूं।
  आपकी स्तुति करते हुए मुझे अपने अवगुण समझ आए ।अब मैं अपने दुर्गुणों को छोड़ने का प्रयत्न करूं और आपके दिखाए पथ पर चलूं।
यह देवाधिदेव श्री वीतराग की मूर्ति है ,इनके अज्ञान आदि दोषों का नाश हो चुका है ,ये अनंत गुण वाले हैं।ये देवेंद्रो से भी पूजित हैं,तत्वों का उपदेश देने वाले हैं,मोक्ष की प्राप्ति उन्हें हो चुकी है,ये संसार सागर से तिर चुके हैं,सर्वज्ञ,सर्व - दर्शी हैं,दया के सागर हैं,परिषह तथा उपसर्गों की सेना को भगाने वाले हैं,रागादी से रहित हैं,ऐसा ज्ञान जैसे जैसे होता जाता है,वैसे वैसे प्रतिमा के दर्शन करते समय उन गुणों का ज्ञान तथा स्मरण दृढ़तर बनता जाता है।
इस प्रकार शुभ भाव से प्रतिमा के दर्शन स्तुति करते हुए जीव अपने अशुभ तथा क्लिष्ट कर्मों का नाश करता है। और समकित की शुद्धि होती है।
धन धन श्री अरिहंत ने रे,जेने ओलखाव्यो लोक सलुना। ए जिन ने दर्शन बिना र,जन्म गुमाव्यो फोक सालुना

आशा कोठारी
ग्वालियर

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