अरिहन्त भगवान 18 दोष रहित होते हैं।
अरिहन्त भगवान वितराग और सर्वज्ञ होते हैं। चार घाति कर्मों का नाश होने पर अर्हन्त-अवस्था प्रकट होती है। जो महान् पुरुष चार घाति कर्मों से रहेत हो चुके हैं, उनकी आत्मा में किसी प्रकार का विकार या दोष नहीं रह सकता। घाति कर्म ही सब प्रकार के दोषों को उत्पन्न करते हैं।
मोहनीय आदि घाति कर्मों का नाश हो जाने पर आत्मा विभाव- परिणति का त्याग करके स्वभाव परिणति में जाता है। ऐसी अवस्था में आत्मा निर्दोष, निरंजन, निष्कलंक और निर्विकार होता है। अतः अरिहन्त भगवान में दोष का लेश भी नहीं रहता। वे समस्त दोषों से अतीत होते हैं। किन्तु यहाँ जिन अठारह दोषों का अभाव
बतलाया जा रहा है, वे उपलक्षण मात्र हैं। किन्तु इन दोषों का अभाव प्रकट करने से समस्त दोषों का अभाव समझ लेना चाहिये। जिस आत्मा में निम्नलिखित अठारह दोष नहीं होंगे, उसमें अन्य दोष भी नहीं रह सकते।
1. मिथ्यात्व- जो वस्तु जैसी है उस पर वैसी श्रद्धा न रखकर, विपरीत श्रद्धा करना मिथ्यात्व दोष
कहलाता है। अरिहन्त भगवान क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर चुकते हैं। इसलिये मिथ्यात्व दोष से रहित होते हैं।
2.अज्ञान- ज्ञान न होना अथवा विपरीत ज्ञान होना अज्ञान कहलाता है। ज्ञान न होने का कारण
ज्ञानावरणीय कर्म है और विपरीत ज्ञान होने का कारण मोहनीय कर्म है। अरिहन्त भगवान इन
कर्मों से रहित होते हैं। वे केवलज्ञानी होने से समस्त लोकालोक एवं चर-अचर पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानते हैं।
3.मद- अपने गुणों का गर्व होना मद कहलाता है। मद वहीं होता है जहाँ अपूर्णता हो। अरिहन्त
सब गुणों से सम्पन्न होने के कारण मद नहीं करते। कहा भी है - "सम्पूर्ण कुम्भो न करोति
शब्दम्" अर्थात्- गर्व न करना ही सम्पूर्णता का चिन्ह है ।
4.क्रोध- क्षमाशूर अरिहन्त कहलाते हैं। वे क्षमा के सागर होते हैं ।
5.माया- छल-कपट को माया कहते हैं। अरिहन्त अत्यन्त सरल स्वभाव वाले होते हैं।
6. लोभ- इच्छा या तृष्णा को लोभ कहते हैं। अरिहन्त भगवान प्राप्त हुई ऋद्धि का परित्याग करकेअनगार अवस्था अंगीकार करते हैं। उन्हें अतिशय आदि की महान् ऋद्धि प्राप्त होती है, फिर भी उसकी इच्छा नहीं करते। वे अनन्त संतोष सागर में ही रमण करते रहते हैं।
7. रति- इष्ट वस्तु की प्राप्ति से होने वाली खुशी रति कहलाती है। अरिहन्त अवेदी, अकषायी और वीतरागी होने के कारण तिलमात्र भी रति का अनुभव नहीं करते, क्योंकि भगवान को कोई भी वस्तु इष्ट नहीं है।
8.अरति- अनिष्ट या अमनोज्ञ वस्तु के संयोग से होने वाली अप्रीति अरति कहलातीं है । अरिहन्त
भगवान समभावी होने से किसी भी दुःखप्रद संयोग से दुःखी नहीं होते।
9.निद्रा- दर्शनावरण कर्म के उदय से निद्रा आती है । इसका सर्वथा क्षय हो जाने के कारण
अरिहन्त निरन्तर जागृत ही रहते हैं।
10. शोक- इष्ट वस्तु के वियोग से शोक होता है। अरिहन्त भगवान के लिये कोई इष्ट नहीं है और
किसी भी पर वस्तु के साथ उनका संयोग भी नहीं होता, अतः वियोग का प्रश्न ही नहीं उठता
और इसलिये उन्हें शोक नहीं होता।
11. अलीक- झूठ बोलना अलीक कहलाता है । अरिहन्त सर्वथा निस्पृह होने से कभी किंचित् भी
मिथ्या भाषण नहीं करते और न अपना वचन पलटते हैं। भगवान शुद्ध सत्य की ही प्ररूपणा
करते हैं।
12. चौर्य- मालिक की आज्ञा बिना किसी वस्तु को ग्रहण करना चोरी है। अरिहन्त निरीह होने के
कारण मालिक की आज्ञा के बिना किसी भी पदार्थ को कदापि ग्रहण नही करते।
13. मत्सरता- दूसरे में किसी वस्तु या गुण की अधिकता देखने से होने वाली ईष्ष्या को मत्सरता कहते हैं। अरिहन्त से अधिक गुणधारक तो कोई होता नहीं, अगर गोशालक के समान फितूर करके कोई अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने का प्रयत्न करता है तो भी अरिहन्त कमी ईष्ष्याभाव नहीं धारण करते
14. भय- अर्थात डर। भय सात प्रकार के हैं ( इहलोकभय- मनुष्य का भय (2) परलोक भय
तिर्चच तथा देव आदि का भय (3) आदानभय- धनादि सम्बन्धी भय (4 )अकस्मात् भय- बाहय
निमित्त के बिना गृहादि में स्थित का रात्रि आदि में भय (5 ) वेदना भय- पीड़ा से होने वाला
भय (6) मृत्यु भय (7) अपूजा- अश्लाघा का भय । अरिहंत भगवान भय मोहनोय से रहित
होने से इन सातो भयों से अतीत है। वे किसी प्रकार के भय से भीत नहीं होते।
15. हिंसा-. षटकाय जीवो में किसी का घात करना हिंसा है। अरिहन्त महादयालु होते हैं,
ये त्रस और स्थावर सभी जीवों की हिंसा से सर्वथा निवृत्त होते हैं। साथ ही "मा हन"अर्थात्
किसी भी जीव को मत मारो , इस प्रकार का उपदेश देकर दूसरों को भी हिंसा का त्याग करवाते है l
"सव्वजगजीवरक्खणदट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं "अर्थात समस्त जगत के जीवों
की रक्षा रूप दया के लिये ही भगवान ने उपदेश दिया है, ऐसा श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र में उल्लेख
है। अरिहन्त हिंसा के कृत्य को अच्छा नहीं को अच्छ जानते।।
16, प्रेम- अरिहन्त में तन, स्वजन तथा धन आदि संबंधी स्नेहा नहीं होता। वे वन्दक और निन्दक
में समभाव रखते हैं। इसलिये अपनी पूजा करने वाले पर तुष्ट होकर उसका कार्य सिद्ध नहीं
करते और निन्दा करने वाले पर रुष्ट हाकर उसे दुख नहीं देते।
17. क्रीड़ा- मोहनीय कर्मो रहित होने के कारण अरिहंत सब प्रकार की क्रीड़ाओं से रहित होते
हैं। गाना, बजाना, रास खेलना, रोशनी करना, मण्डप बनाना, भोग लगाना इत्यादि क्रियाएं
करके भगवान को जो प्रसन्न करना चाहते हैं, वे बड़े मोहमुग्ध हैं।
18. हास्य- किसी अपूर्व-अदभुत वस्तु या क्रिया आदि को देखकर हंसी आती है। सर्वज्ञ होने के
कारण उनके लिये कोई वस्तु अपूर्व नहीं है. गुप्त नहीं है। इस कारण उन्हें कभी हंसी नहीं आती।
अरिहन्त भगवान इन अठारह दोषों से रहित होते हैं। इन अठारह दोषों में समस्त दोषों का समावेश है। अतः अरिहंत भगवान को समस्त दोषों से निर्दोष समझना चहिये ।
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