साध्वी मदनरेखा 🌷🌷🌷
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साध्वी मदनरेखा की जीवनकथा अर्थात नारी के शील के सात्विक प्रभाव की विजयकथा । अनगिनत आपत्तियों और आकस्मिक -अचीती घटनाओं से जीवन में अनेक आघात-प्रत्याघातों को सहन करनेवाली साध्वी मदनरेखा का जीवनचरित्र जितना रोमांचक है , उतना ही प्रेरक है ।
सुदर्शनपुर नगर के मणिरथ राजा के छोटे भाई युगबाहु की पत्नी मदनरेखा अत्यंत सौंदर्यवान थी । उसके सौंदर्य से मुग्ध हुए मणिरथ राजा ने कीमती आभूषण , वस्त्र और सुगन्धित पुष्प भेजकर मदनरेखा को कामक्रीड़ा के लिए संदेशा भेजा , तब मदनरेखा ने राजा को स्पष्ट शब्दों में कहा कि छोटे भाई की पत्नी के बारे में ऐसा विचार करना आपके लिए अशोभनीय है । राजा मणिरथ की कामवासना की आग अधिकाधिक प्रदीप्त होती रही । कामी मनुष्य की विषयलालसा उसके विवेक के दीपक को बुझा देती है । राजा मणिरथ ने मदनरेखा को येनकेनप्रकारेण प्राप्त करने के लिए अपने लघु भ्राता युगबाहु की हत्या करने का अधम विचार किया ।
वसंतपुर नगर में स्थित कदलीगृह में एक समय युगबाहु निंद्राधीन था , तब अचानक मणिरथ ने तलवार से प्राणघातक हमला किया । व्याकुल मदनरेखा की चीखें सुनकर दौड़ आये सुभटों ने राजा को पकड़ तो लिया , परन्तु क्षमामूर्ति युगबाहु ने सुभटों से कहा कि मेरे बड़े भाई का वध मत करना । यह तो मेरे पूर्वजन्म का फल है । इस प्रकार मौत के मुँह से बचा हुआ मणिरथ राजा मन-ही-मन आनंदपूर्वक विचारने लगा कि स्वयं युगबाहु की हत्या करने में कैसा सफल हुआ ! किन्तु कर्म की गति अनोखी है ।वन में से पसार हो रहे मणिरथ राजा को सर्पदंश होते ही उसकी मृत्यु हुई ।
युगबाहु अंतिम साँस ले रहे थे तब उनका पुत्र चंद्रयशा वहाँ आ पहुँचा । मदनरेखा ने पति द्वारा सब जीवों की क्षमा माँगकर अंतिम समय की आराधना की अमृतवाणी सुनाई । इस धर्मवाणी का श्रवण करते हुए शुभ ध्यान में लीन हुए युगबाहु ब्रहृदेवलोक में देवरुप में उत्पन्न हुए । दूसरी ओर पृथ्वी पर मदनरेखा अत्यंत व्यथित हो गई । स्वयं पति की मृत्यु का निमित्त बनी इसलिए वह अपने आप के प्रति धिक्कार का भाव अनुभव करती हुई एकांत जंगल में गुप्तवास करने लगी । इस जंगल में उसके दूसरे पुत्र का जन्म हुआ । उसके हाथ में युगबाहु की नामांकित अंगूठी पहनाकर नवजात शिशु को रत्नकँबल में लपेटकर वृक्ष की छाया में रखकर स्नान करने जलाशय की ओर गई ।
जलाशय में स्नान करती हुई मदनरेखा को जलहस्ति ने सूँढ़ में लपेटकर आकाश में उछाला । आकाश से पसार होते विद्याधर ने उसका रक्षण किया । विद्याधर भी मदनरेखा के रुप पर मोहित हुआ । कामासक्त विद्याधर को उसके पिता मुनिराज मणिचूर ने संसार की असारता , सौंदर्य की क्षणभंगुरता और परस्त्रीगमन के पाप की बात करते ही विद्याधर के हृदय के चहुँ ओर जमे हुए विषय के बादल छँट गये । कीचड़ में कमल उगे उसी प्रकार उसने मदनरेखा की क्षमायाचना करके उसे अपनी भगिनी बनाया ।
मिथिला नगरी में आयी हुई मदनरेखा को ज्ञात हुआ कि भरतखंड के सुदर्शनपुर नगर के राजा चंद्रयशा और मिथिला के राजा बने हुए नमिकुमार एकदूसरें के सामने युद्ध कर रहे है । उस समय मदनरेखा दीक्षा लेकर सुव्रता साध्वी बनी थी । उसने गुरुआनी की आज्ञा लेकर युद्ध का महासंहार रोकने के लिए युद्धक्षेत्र पर प्रयाण किया । युद्ध का कारण यह था कि नमिराजा के भागे हुए श्वेत हाथी को चंद्रयशा ने जबरन पकड़कर अपने पास रखा था । रणभूमि पर मदनरेखा ने धर्मोपदेश दिया और फिर एकांत में दोनों राजाओं को उनका पूर्ववृतांत कहते ही दोनों सगे भाईयों की तरह एकदूसरें से भेंट पड़े ।
परिणामतः युद्ध के महासंकट के स्थान पर बिछुड़े हुए भाईयों के मिलन का महोत्सव निर्मित हो गया ।
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साभार: जिनशासन की कीर्तिगाथा
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