Friday, 19 June 2020

Mahabalipuram

...........*जिनालय दर्शन*...........
*महाबलीपुरम तीर्थ*
लॉकडाउन के चलते हमारी कोशिश है कि प्रतिदिन आपको घर पर प्रभु दर्शन करा सकें।
आज हम आपको *श्री महाबलीपुरम तीर्थ* के दर्शन 👏🏼करा रहे हैं........
इस तीर्थ का वीडियो एवम्ं तीर्थ की जानकारी हमें मूर्तिपूजक युवक महासंघ के संरक्षक श्री अनिल जी बैद से प्राप्त हुई है।

*अनिल जी की कलम से*🖌.... 
---------------------------
जय जिनेद्र 👏🏼
.....अलौकिक तीर्थ (भाग ...).....

6 मई, 2001 को श्रेष्ठीवर्य श्री हरखचंद जी नाहटा, बीकानेर हाल दिल्ली परिवार का दीर्घकालीन संकल्प, 23वें तीर्थंकर परमात्मा पार्श्वनाथ व माँ पदमावती जिनालय के भूमि पूजन व 27 मई, 2001 को शिलान्यास से पूर्णता की ओर अग्रसर हुआ। इसका भूमिपूजन व शिलान्यास पूज्य उपाध्याय श्री मणिप्रभसागरजी म.सा. की निश्रा में हुआ। 
25 अप्रैल, 2002 को पूज्य आचार्य श्री विजय सुशील सूरीश्वरजी म.सा. एवं आचार्य श्री विजय जिनोत्तम सूरीश्वरजी म.सा. के हस्ते परमात्मा की प्रतिमा प्रतिष्ठा का महामहोत्सव सम्पन्न हुआ।  इस अवसर पर विभिन्न समुदाय के 4-4 आचार्य सह 46 साधू साध्वी भगवंत उपस्थित थे। संभवतया इतनी बड़ी संख्या में गुरुभगवंतों की उपस्थिति उत्तर भारत के किसी प्रतिष्ठा महोत्सव पर नहीं रही। उत्तर भारत में माँ पद्मावती की यहाँ सबसे बड़ी मूर्ति प्रतिष्ठित है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों से वरिष्ठ श्रावक-श्राविकाओं  का आगमन हुआ इसमें भारत की राजनैतिक वह फ़िल्म उद्योग के व्यक्ति भी शामिल हुए और प्रतिष्ठा बहूत ठाठ-बाठ और व महोत्सव पूर्वक संपन्न हुई। 
यहाँ अहिंसा बॉल लगी है जिसका अनावरण 26 अप्रैल, 2006 में पूज्य आचार्य श्री रत्नसुंदर सूरीश्वरजी म.सा. की उपस्थिति में दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री श्री साहिब सिंह जी वर्मा के द्वारा हुआ।
यहाँ पर चारों दादा गुरुदेव के दाह संस्कार स्थल से रज़ अर्थात मिट्टी लाकर उस पर संबंधित गुरुदेव के दर्शनीय चरण रखे गये हैं। इनका अनावरण 28 दिसंबर, 2008 में श्रद्धेय प्रवर्तिनी श्री चन्द्रप्रभा श्री जी म.सा. निश्रा में हुआ। 
इस तीर्थ की प्राकृतिक छटा अलौकिक व निराली है। दिल्ली के दक्षिण में मेहरोली क्षेत्र के भाटी गांव की पठारी भूमि पर अवस्थित यह तीर्थ दर्शनार्थियों को आत्म संतुष्टि प्रदान करता। इस तीर्थ पर यात्रियों की सात्विक इच्छाओं की पूर्ति होती है। 

तीर्थ का पता:- श्री पार्श्व-पद्मावती जिनालय महाबलीपुरम तीर्थ न्यास 
गाँव: भाटी, छत्तरपुर भाटी माइन्स रोड,
नई दिल्ली- 110074
दूरभाष: +91 7836072000
             +91 9310072400

कभी अवसर मिले तो महाबलीपुरम तीर्थ के  दर्शन का लाभ अवश्य लें।
🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
अनिल बैद 👏🏼
 ----------------------------
उनसे प्राप्त वीडियो से पवित्र तीर्थ के 🙏 दर्शन का लाभ लें  !! 🙏
अनिल जी बैद की खूब खूब अनुमोदना! 
   🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
*श्री आत्मानन्द जैन सेवक मण्डल*

Godi parshwanath temple mumbai

मुंबई के महाराजा ऐसे श्री गोडीजी पार्श्वनाथ के जिनालय के दर्शन करीये - 
यह मंदिर २०७ वर्ष प्राचीन है । 
पायधुनी - आचार्य विजय वल्लभ चौक मुंबई २

परिचय :
                 मुंबई के जैन समाज कि अस्मिता के रुप में खड़ा श्री गोड़ीजी जिनालय, मुंबई के इतिहास को दर्शाता है। इस जिनप्रासाद के साथ मुंबई कि भव्यता का इतिहास जुड़ा है। बड़ी-बड़ी इमारतों और लोगों व आवागमन के साधनों से उभरता, आज का ४४० किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला मुंबई महानगर किसी जमाने में छोटे-बड़े सात टापुओं में विभक्त था। ई. स. १४७९ में पहली बार पुर्तगाली लोग समुद्री मार्ग से मुंबई आये थे। धीरे-धीरे उन्होंने इस टापु पर अपना अधिकार जमाया और इस प्रकार मुंबई पर पुर्तगाली शासन कि शुरुआत हुई। ई.स. १६०५ में पुर्तगाल कि राजकुमारी काइंग्लैण्ड के राजकुमार से विवाह हुआ। मुंबई को अपनी जागीर समझते पुर्तगाल ने उस विवाह कि खुशी में मुंबई इंग्लैंड के राजकुमार को दहेज में दे दिया गया। इसके बाद मुंबई ब्रिटिश हुकुमत कि अधीनता में आ गया। ई.स. १६९२ में दीप बंदरगाह से रुपजी धनजी नामक व्यापारी मुंबई आये थे। जैन व हिन्दुओं में मुंबई आने वाले वे पहले श्रेष्ठी थे। व्यापारिक सफलताओं के लिए मुंबई कि ख्याती दिनों दिन बढ़ती गई। साहसिक व्यापारियों कि यह पहली पसंद बन गई। उस जमाने में फोर्ट मुंबई का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र था। सभी बड़े व्यापारी वहीं निवास करते थे। वहां एक माईल के क्षेत्रफल में एक परकोटा (कोट) बनाया गया था। सुरक्षा के लिए उस परकोटे (कोट) के चारों ओर बड़ी खायी थी। उस परकोटे के तीन द्वार थे। बाजार गेट, चर्च गेट, एपोलो गेट। मुंबई में जैन समाज काइतिहास ई.स. १७४४ के आसपास प्रारंभ होता है। इस अरसे में यहां जैन श्रेष्ठियों के आगमन कासिलसिला शुरु हो गया था। अधिकांश जैनों ने फोर्ट के परकोटे (कोट) में ही अपना निवास बनाया। ई.स. १७५८ में महान् पुण्यशाली शेठ मोतीशाह के पिता शेठ अमीचंदभाई खंभात से अपने परिवार के संग मुंबई आये। यहां 7 वर्ष तक नौकरी करने के बाद उन्होंने अपने स्वतंत्र व्यवसाय कि भव्य शुरुआत कि।
आगे चलकर यहां कि मखमली माटी पर इस परिवार के कदमों के निशान यशस्वी जैन इतिहास का शिलालेख बन गये। शेठ अमीचंदभाई ने आराधना के लिए अपने घर में गृह जिनालय बनाया था। इसका प्रमाण श्री गोड़ीजी संघ के बहीखातों से मिलता है। ई.स. १७७५ के आस पास  जैन श्रेष्ठी कल्याणजी कानजी भी घोघा से मुंबई आये। इसके बाद शेठ अमीचंदभाई के महत्त्वपूर्ण योगदान से फोर्ट में मुंबई के सर्वप्रथम जिनालय का निर्माण हुआ। उस जिनालय के मूलनायक श्री गोड़ी पार्श्वनाथ भगवान थे। इस प्रकार गोड़ी पाश्र्वनाथ प्रभु से मुंबई के स्वर्णिम जैन इतिहास का पहला अध्याय शुरु हुआ और शेठ मोतीशाह के परिवार के साथ गोड़ी पार्श्वनाथ प्रभु कि प्रतिमा के संबंध भी अमर बन गये।
ई.स. १८०३ में फोर्ट में भयंकर आग लग गई। तीन दिन और तीन रात चली इस आग से करीब ४० लाख रुपयों का नुकसान हुआ। इसमें जैन, वैष्णव और ब्राह्मण समाज के भी ४०० से अधिक लकड़ी के मकान जलकर खाक हो गये। आग से हुई उस तबाही के कारण वहां के जिनालय के मूलनायक प्रभु श्री गोड़ी पाश्र्वनाथ को सुरक्षित पायधुनी-भुलेश्वर लाया गया। बस, इसी गोड़ी पाश्र्वनाथ प्रभु के पदार्पण के बाद समग्र विश्व के जैन समाज में पायधुनी 'गोड़ीजी' के सुहावने नाम से प्रसिद्ध हो गया। उस अरसे में आये भयानक समुद्री तुफान के कारण लोग भी फोर्ट छोड़कर पायधुनी – भुलेश्वर में बसने लगे। २९ जनवरी १८०६ को पायधुनी में गोड़ी पाश्र्वनाथ प्रभु काभव्य जिनप्रासाद बनाने काशुभ संकल्प लेकर शेठ मोतीशाह के बड़े भ्राता नेमचंदभाई ने मकानों कि खरीदी शुरु कि। ४ अक्टूबर १८११ को गोड़ीजी जिनालय के लिए अविचलदास गोविंदजी भंसाली से जगह खरीदकर नेमचंदभाई ने अपने नाम दस्तावेज रजिस्टर्ड करवाया। इसके बाद कुछ ही महिनों में जिनालय कानिर्माण संपन्न हो गया। इस पवित्र स्थापत्य को ईंट और चूने से बनाया गया। इसमें बड़ी मात्रा में महंगी लकड़ी का उपयोग किया गया। तल मंजिल में उपाश्रय और धर्मशाला तथा पहली मंजिल में काष्ठ का कलात्मक जिनमंदिर तैयार हुआ। छत, फर्श और स्तम्भ लकड़ी के बनाये गये। नयनरम्य पेइंटिंग्स और लकड़ी में उत्किर्ण कि गई नक्काशी ने गोड़ीजी जिनालय को अत्यंत भव्य बना दिया। फिर आई वो शुभ घड़ी, जब ई.स. १८१२ (विक्रम संवत् १८६८) में द्वितीय वैशाख सुद १०, बुधवार के पावन दिन प्रात: ८.३० बजे बड़े ही धूमधाम से प्रकट प्रभावी श्री गोड़ी पार्श्वनाथ प्रभु कि महा मंगलकारी प्रतिष्ठा हुई। मुंबई में साधना और समृद्धि के नये सूरज का उदय हुआ, जिसकि रोशनी से हजारों-लाखों आत्माएं धन्य बन गईं। कर्म के लेख लिखने मुंबई आने वालों ने धर्म के लेख भी बड़ी खूबी से लिखे। कि सी को यह पता नहीं था कि ई.स. १८१२ के मंगल मुहूर्त में प्रतिष्ठित होने जा रहे श्री गोड़ी पार्श्वनाथ प्रभु हजारों लाखों जिंदगीयों का आशीयाना बन जाएंगे। महान् प्रभावक आचार्य श्री विजय देवसूरिजी महाराज के श्रद्धानिष्ठ यति श्रीपूज्य देवेन्द्रसूरिजी के करकमलों से गोड़ी पाश्र्वनाथ काप्रतिष्ठापन हुआ। उसी पावन वेला में 'श्री विजय देवसूर संघ' कि स्थापना भी हुई। घोघा के कल्याणजी कानजी परिवार ने गोड़ी पाश्र्वनाथ प्रभु कि प्रतिष्ठा कामहान् लाभ प्राप्त कि या और जिनालय पर यशस्वी ध्वजारोहण शेठ मोतीशाह और उनके भ्राता नेमचंदभाई व देवचंदभाई ने कि या। उसी यादगार दिन से पायधुनी का'गोड़ीजी' श्री विजय देवसूर तपागच्छ संघ कि उज्ज्वल परंपरा और विशुद्ध समाचारी काप्रमुख केन्द्र है। जहां कि नीतियों और व्यवस्थाओं काअनुसरण देश-विदेश के सभी तपागच्छ संघ आज भी करते आ रहे हैं।
विशिष्टा :
शेठ मोतीशाह को श्री गोड़ी पार्श्वनाथ प्रभु पर अपार श्रद्धा थी। उन्होंने अपने पुत्र खेमचंदभाई के नाम बनाई वसीयत में भी श्री गोड़ी पाश्र्वनाथ भगवान कि कृपा कातीन बार उल्लेख कि या है। भायखला में आज जहां श्री आदिनाथ प्रभु काभव्य जिनप्रासाद है, वहां कभी शेठ मोतीशाह काउद्यान था। प्रारंभिक वर्षों में शेठ मोतीशाह भायखला से पैदल चलकर प्रतिदिन श्री गोड़ी पाश्र्वनाथ भगवान कि पूजा-भक्ति के लिए के लिए पायधुनी आया करते थें। उन्होंने भायखला के श्री आदीश्वर जैन मंदिर के पिछवाड़े स्थित अपनी जमीन कातीसरा हिस्सा भी श्री गोड़ी पाश्र्वनाथ जिनालय, पायधुनी को अर्पित कि या था। ऐसे धर्मनिष्ठ कर्मयोगी शेठ मोतीशाह काजब ५४ वर्ष कि आयु में ई. स. १८३६ में स्वर्गवास हुआ तो उनके सम्मान में मुंबई के सभी बाजार और देश के अनेक बड़े बाजार बंद रहे थे। शेठ मोतीशाह कि तरह ही घोघा निवासी शेठ कल्याणजी कानजी और उनके सुपुत्र त्रिकमभाई व दीपचंदभाई (उर्फे बालाभाई, शत्रुंजय तीर्थ पर बालावसही टूंक के निर्माता) को भी श्री गोड़ी पार्श्वनाथ प्रभु के प्रति अपार श्रद्धा-भक्ति थी। वे सभी श्री गोड़ीजी संघ के कार्यों में विशेष रुची लेते थें। शेठ कल्याणजी कि सुश्राविका कुंवरभाई, जो रामकोर काकि के लोकप्रिय नाम से प्रसिद्ध थीं, गोड़ीजी संघ में श्राविकावर्ग काप्रतिनिधित्व करती थी। उस जमाने में श्री गोड़ीजी संघ के संचालक में श्रद्धानिष्ठ उदार हृदयी रामकोर काकि का महत्वपूर्ण योगदान हुआ करता था। इसी तरह पाटण के श्रेष्ठी पे्रमचंद रंगजी और मांगरोल के श्रेष्ठी ताराचंद मोतीचंद भी मुंबई के प्रथम पंक्ति के प्रभावशाली श्रावक थे। ये सभी श्री गोड़ीजी संघ के कार्यों में विशेष रुची लेते थे। शेठ कल्याणजी कि सुश्राविका कुंवरबाई, जो रामकोर काकिके लोकप्रिय नाम से प्रसिद्ध थीं, गोड़ीजी संघ में श्राविक वर्ग काप्रतिनिधित्व करती थी। उस जमाने में श्री गोड़ीजी संघ के संचालन में श्रद्धानिष्ठ उदार हृदयी रामकोर काकि कामहत्त्वपूर्ण योगदान हुआ करता था। इसी तरह पाटण के श्रेष्ठी पे्रमचंद रंगजी और मांगरोल के श्रेष्ठी ताराचंद मोतीचंद भी मुंबई के प्रथम पंक्ति के प्रभावशाली श्रावक थे। ये सभी गोड़ीजी के प्रति विशेष अहोभाव रखते थे। शेठ ताराचंद मोतीचंद ने तो ई.स. १८१० में हिन्दु रसोईदार व अपने विश्वसनीय नौकरों को साथ लेकर व्यापार हेतु चीन कि यात्रा भी कि थी। वे आठ वर्ष चीन में रहे थे। इस दौरान अपनी आराधना के लिए उन्होंने चीन के केन्टोन शहर में श्री पाश्र्वनाथ प्रभु कि पंचधातु कि एक मनोहारी प्रतिभा भी स्थापित कि थी। ई.स. १८७४ तक वह जिन प्रतिमा वहां सुरक्षित थी। शेठ मोतीशाह के मामा खंभात के श्रेष्ठी परतापमल जोइतादास और घोघा के श्रेष्ठी फुलचंद कपुरचंद भी श्री गोड़ी पाश्र्वनाथ प्रभु के परम भक्त थें। गोड़ीजी के लिए उनके भी उल्लेखनीय योगदान रहे हैं। इन दोनों श्रेष्ठियों ने शत्रुंजय गिरी पर मोतीशाह कि टूंक में जिनालयों का निर्माण भी करवाया था। मुंबई के शाह सोदागर शेठ श्री केशवजी नायक भी श्री गोड़ी पाश्र्वनाथ प्रभु के अनन्य उपासक थे। व तन-मन-धन से गोड़ीजी कि सेवा में सदैव तत्पर रहते थें। उन्होंने शत्रुंजय गिरी पर टूंक कानिर्माण कर ऐतिहासिक सुकृत्य किया था। शेठ किकाभाई प्रेमचंद भी श्री गोड़ीजी देवसूर संघ से जुड़ा एक यशस्वी नाम है। अनेक वर्षों तक वे इस संस्थान के पदाधिकारी रहे। ब्रिटेन कि महारानी ने उनको 'सर ' कि उपाधि से नवाजा था। उनके नाम से ही गुलालवाड़ी कानामकरण 'किकास्ट्रीट' के रुप में हुआ।
अनेक राजनीतिक और प्रशासनिक मामलों में जैन समाज के प्रतिनिधि बनकर उन्होंने सफलताएं प्राप्त कि थी। ज्यों – ज्यों मुंबई में गोड़ीजी के भक्त बढ़ते गए, त्यों-त्यों गोड़ीजी कि आमदनी भी बढ़ती गई। लेकि न आमदनी को इकठ्ठा करने के बजाय गोड़ीजी ने देश भर के छोटे-बड़े जिनालयों के जीर्णोद्धार हेतु सहयोग देना शुरु कि या। योगदान कि यह महान परंपरा करीब १७२ वर्षों से अविरत जारी है। गोड़ीजी के सान्निध्य में धर्म-आराधना के साथ-साथ मानवता के कार्य भी निरंतर होते रहे हैं। ई.स. १८९६ में मरकि रोग के भयंकर उपद्रव के समय गोड़ीजी के उपाश्रय में राहत केन्द्र खोलकर बेहतर सेवाएं दी गई थी। उसके बाद भी जब-जब भूकंप, अतिवर्षा या महामारी कादुर्भाग्यपूर्ण समय आया तो गोड़ीजी में मानव-सेवा कि ज्योत सबसे पहले प्रज्ज्वलित हुई। सांप्रदायिक दंगो से प्रभावित बेसहारा लोगों के लिए यहां कई बार महिने-महिने तक भोजन-पानी कि व्यवस्थाएं कि गई। ई.स. १९४८ में तो गोड़ीजी में बाकायदा मानव राहत समिति काविधिवत गठन कर दिया गया। ईसा कि १८वीं शताब्दी के उत्तराद्र्ध में सौराष्ट्र के वंथली शहर से शेठ देवकरण मूलजी मुंबई आये थे। फेरी करके वे टोपियों बेचने काकाम करते थे। आगे जाकर वे कपड़े कि ६ मीलों के सेलिंग एजेंट बन गये थें। उस जमाने में उन्होंने सात लाख रु. कादान कि या था। मृत्यु से पूर्व उन्होंने शिक्षा, चिकि त्सा, धर्म और समाज-कल्याण क कार्यों के लिए १४ लाख रुपयों काट्रस्ट बनाकर सभी को उदारता व दानधर्म कि प्रेरणा दी थीं। उसी ट्रस्ट के आधार पर मलाड़ (पश्चिम) में श्री जगवल्लभ पाश्र्वनाथ काकलात्मक जिनालय, उपाश्रय और साधर्मिक बन्धुओं के निवास तैयार हुए।
५ अप्रैल १९३४ को वही ट्रस्ट श्री गोड़ीजी देवसूर संघ को सुपुर्द कर दिया गया। आज गोड़ीजी के तत्त्वावधान में मलाड़ का श्री देवकरण मूलजी जैन ट्रस्ट अपना स्वतंत्र प्रभार व्यवस्थित संभाल रहा है। स्वतंत्रता सेनानी और जाने-माने साहित्यकार श्री मोतीचंद गीरधरलाल कापडिया ने श्री गोड़ीजी देवसूर संघ के संचालन और प्रारंभिक संविधान के निर्माण में महती भूमिकानिभाई थी। समय काप्रवाह चलता रहा। गोड़ीजी के आसपास और मुंबई में बड़ी मात्रा में जैन परिवारों कानिवास होता गया। एक ओर धन कि समृद्धि बढ़ती गई दूसरी ओर धर्म कि सरिता भी बहती गई। ई.स. १९०६ में शिरोमणी पन्यास प्रवर श्री कमलविजयजी महाराज कागोड़ीजी-पायधुनी में पहला वर्षावास हुआ। इसके बाद अनेक नामी-अनामी साधु-संतों ने ज्ञान कि गंगा बहाकर गोडीजी संघ को पल्लवित कि या। ई.स. १९३६ के वर्षावास में पंन्यास क्षमाविजयजी ने तिथी के संबंध में अलग प्ररुपणा कि। बावजूद इसके गोड़ीजी के श्री विजय देवसूर संघ ने अपनी समाचारी के अनुसार ही पर्युषण महापर्व कि आराधना कर परंपरा को जीवंत रखा। श्री गोड़ीजी भक्तियोग और तपयोग के साथ-साथ ज्ञानयोग कि साधना काभी प्रमुख केन्द्र रहा है। यहां साधु-साध्वीजी के विद्याभ्यास हेतु विशेष व्यवस्थाएं कि गई थीं। इतना ही नहीं, यहां बाल-युवा-कन्या और महिला वर्ग के लिए भी अलग-अलग धार्मिक पाठशालाएं खोली गईं। तत्वज्ञान, न्याय, व्याकरण और संस्कृत-प्राकृत भाषा के अध्ययन हेतु पाठशालाएं चलाकर गोड़ीजी ने धर्म कि परंपराओं को मजबूत करने कागौरवपूर्ण कार्य कि या। आचार्य श्री विजय धर्मसूरिजी महाराज के गोड़ीजी में ऐतिहासिक वर्षावास हुए। उन्होंने जिनालय के जीर्णोद्धार और उपाश्रय के नवनिर्माण कि महती प्रेरणा दी। गोडीजी के १५० वर्षो काभव्य महोत्सव भी आप के सान्निध्य में मनाया गया। आचार्य श्री विजय नेमीसूरिजी महाराज के अनेक आचार्य भगवंतों ने भी वर्षावास कर सुकृत्यों कि प्रेरणा दी और संघ को उपकृत कि या। आचार्य श्री सागरानंदसूरिजी महाराज के चातुर्मास में गोड़ीजी मित्र मंडल कि स्थापना हुई। इस मंडल ने संघ के अनेक छोटे-बड़े कार्यो में सहभागिता निभाई।
आचार्य श्री विजय वल्लभसूरिजी महाराज का चातुर्मास समाजोद्धार के कार्यो के लिए आज भी याद किया जाता है। कालांतर में लकड़ी का बना जिनालय जीर्ण हो गया। बड़े जिन प्रासाद कि आवश्यकता भी सतत महसूस होने लगी। अंत: मूलनायक श्री गोड़ी पाश्र्वनाथ प्रभु कि प्रतिमा को उत्थापित किए बगैर देवविमान तुल्य श्वेत संगमरमरीय पाषाण के देदिप्यमान जिनालय का निर्माण हुआ। उसका भव्य अंजनशलाका-प्रतिष्ठा महोत्सव विक्रम संवत् २०४५ (ई.स.१९८९) में आचार्य प्रवर श्री सुबोधसागरसूरीश्वरजी महाराज के सान्निध्य में भव्यता से संपन्न हुआ। इसके सोलह वर्ष बाद विक्रम संवत् २०६१ (ई.स. २००५) में आचार्य श्री सूर्योदयसागरसूरीश्वरजी महाराज के करकमलों से स्वर्ण पाश्र्वनाथ भगवान के अंजनशलाका-प्रतिष्ठा महोत्सव कि ऐतिहासिक संयोजना हुई। अब स्वनामध्यन्य महापुरुष, आचार्य श्री पद्धसागरसूरिजी महाराज के सान्निध्य में श्री गोड़ीजी का१८ दिवसीय द्विशताब्दी महामहोत्सव एक अविष्मरणीय आयोजन है। इस स्मृति को जीवंत रखेने के लिए श्री विश्वमंगल नवग्रह पाश्र्वनाथ भगवान व श्री शुभंस्वामी गणधर कि प्रतिमा कि अंजनशलाका-प्रतिष्ठा होन जा रही है। इस अवसर पर जसपरा निवासी मातुश्री गजराबेन गीरधरलाल जीवणलाल परिवार द्वारा १,३५,००० परिवारों में मीठाई कावितरण और लगभग ८ लाख ४० हजार मूर्तिपूजक जैन साधर्मिक भाई-बहनों काश्रीसंघ स्वामीवात्सल्य जैन इतिहास कास्वर्णिम अध्याय लिखने जा रहा है। यह सुकृत्य कर जसपरा, सौराष्ट्र के गजराबेन परिवार ने अपनी आने वाली पीढियों को भी अमर बना दिया है। 

Album link 

Logassa sutra

"जैन संदेश" 
    "लोगस्स सूत्र का हिन्दी मे अनुवाद "
लोगस्स                =   लोक में
उज्जोअ               =  प्रकाश
गरे                       =   करने वाले
धम्म                     =   धर्म रुपी
तित्थ                   = तीर्थ का
यरे                      = प्रवर्तन करने वाले
जिणे                   = विजेता (राग द्वेषादि के)
अरिहंते                = त्रैलोक्य पूज्यों की
कित्तइस्सं             = स्तुति करुंगा
चउवीसं पि           = चौबीसोें
केवली                 = केवलियों की
उसभं                  = श्री ऋषभदेव
अजिअं                = श्री अजितनाथ को
च                        = और
वंदे                      = मैं वंदन करता हुँ
संभवं                   = श्री संभवनाथ 
अभिणंदणं            = श्री अभिनंदन स्वामी को
च                        = और
सुमइं                    = श्री सुमतिनाथ को
च                         = और
पउमप्पहं               = श्री पद्मप्रभ स्वामी को
सुपासं                   = श्री सुपार्श्वनाथ को
च                         = और
जिणं                     = जिनेश्वर को
चंदप्पहं                  = श्री चंद्रप्रभ 
वंदे                        = मैं वंदन करता हुँ 
सुविहिं                   = श्री सुविधिनाथ
च                          = यानि
पुप्फदंतं                 = श्री पुष्पदंत को
सीअल                  = श्री शीतलनाथ
सिज्जंस                = श्री श्रेयांसनाथ
वासुपुज्जं               = श्री वासुपूज्य स्वामी को
च                          = और
विमलं                     = श्री विमलनाथ 
मणंतं                     = श्री अनंतनाथ 
च                         = और
जिणं                     = जिनेश्वर को
धम्मं                      = श्री धर्मनाथ
संतिं                      = श्री शांतिनाथ को
वंदामि                   = मैं वंदन करता हुँ
कुंथुं                       = श्री कुंथुनाथ 
अरं                        = श्री अरनाथ
च                          = और
मल्लिं                    = श्री मल्लिनाथ को
वंदे                        = मैं वंदन करता हुँ
मुणि - सुव्वयं          = श्री मुनिसुव्रत स्वामी
नमि                       = नमिनाथ को
जिणं च वंदामि          = जिनेश्वर को में वंदन करता हुँ
रिट्ठ-नेमिं                 = श्री अरिष्ट नेमि (नेमिनाथ) को
पासं                       = श्री पार्श्वनाथ
तह                         = तथा
वद्धमाणं च               = श्री वर्धमान स्वामी (महावीर) को
एवं                           = इस प्रकार
मए                           = मेरे द्वारा
अभिथुआ                  = स्तुति किये गये
विहुय                         = से रहित
रय                             = रज
मला                           = मल
पहीण                         = मुक्त
जर                             = वृद्धावस्था
मरणा                          = मरण से
चउ-वीसं पि                  = चौबीसों
जिणवरा                       = जिनेश्वर
तित्थ                           = तीर्थ
यरा                              =प्रवर्तक
मे                                = मेरे उपर
पसीयंतु                        = प्रसन्न हों
कित्तिय                        = कीर्तन
वंदिय                           = वंदन
महिया                         = पूजन किये गये हैं
जे                               = जो
ए                                = ये
लोगस्स                       = लोक में
उत्तमा                         = उत्तम हैं
सिद्धा                          = सिद्ध हैं
आरुग्ग                        = आरोग्य के लिए
बोहिलाभं                    = बोधि लाभ
समाहि -वरं                  = भाव समाधि
मुत्तमं                          = उत्तम
दिंतु                            = प्रदान करें
चंदेसु                          = चंद्रो से
निम्मल                        = निर्मल 
यरा                             = अधिक
आइच्चेसु                     = सूर्यो से
अहियं                         = अधिक
पयासयरा                     = प्रकाशमान
सागर                          = सागर से
वर                              = श्रेष्ठ
गंभीरा                         = गंभीर
सिद्धा                           = सिद्ध भगवंत
सिद्धिं                          = सिद्धि
मम                              = मुझे
दिसंतु                          = प्रदान करें    
               सभी भाई-बहिनों को सादर नमस्कार
लोगस्स सूत्र को ज़्यादा से ज्यादा 
शेयर जरूर करे !
                जयजिनेन्द्र सा !..

9 smaran ka mahattva

जैन शासन मे नव स्मरण का महत्व 

         जैन शास्त्र में नव स्मरण का महात्मय सर्वाधिक बताया है, ज्ञानी गुरूभंगवतो ने इसे 'सुपर पावर टोनिक' का नाम भी दीया है । नवस्मरण का स्वाध्याय करने मात्र से मन में प्रसन्नता पैदा होती हैं । क्षुद्र उपद्रवो इत्यादि दूर हो जाते है । वातावरण अनुकूल बनता है , आपत्तियाँ दुर हो जाती हैं । समाधि समता मिलती है ... पूर्वाचार्यो  ने नवस्मरण में बहुत ही सुंदर मंत्रो का समावेश किया है।

    नवस्मरण सूत्र   और रचियता      
१ महामंत्र नवकार................   शश्वत
२ ऊवसग्गरं..............भद्रबाहु स्वामी
३ संतिकर............... मुनिसुंदर सूरी
४ तिजय पहुत.......... मानदेव सूरी
५ नमिऊण............... मानतुंग सूरी
६ अजित शान्ति........ नंदीषेण सूरी
७ भक्तामर............... मानतुंग सूरी
८ कल्याण मंदिर......सिध्द सेन दिवाकर सूरी
९ बृहत शांति............ शिवादेवी माता

जैन शासन के नवस्मरण सुत्र  :-

१. श्री नवकारमंत्र

२. उवसग्गहरं स्तोत्र

३. श्री संतिकरम स्तोत्र

४. श्री तिजयपहुत्त स्तोत्र

५. श्री नमिउण स्तोत्र

६. अजिशांति स्तोत्र

७. भक्तामर स्तोत्र

८. कल्याण मंदिर स्तोत्र

९. बृहद शांति स्तोत्र

Pratima ke darshan kyo

हमें प्रतिमा के दर्शन क्यों करने चाहिए
--------------------------------
हमें प्रतिमा के दर्शन क्यों करने चाहिए ये सवाल ऐसा है जैसे कि किसी प्यासे इंसान से पूछा जाए कि पानी क्यों पीना है।
अमिय भरी मूर्ति रची ,उपमा न घटे कोय।शांत सुधा रस झीलती र निरखत तृप्ति न होय।
हे प्रभो!
इस जगत में यदि आपकी प्रतिमा नहीं होती तो
हम आपके स्वरूप को कैसे जान पाते?
जिन प्रतिमा से तो प्रभु के स्वरूप का भान होता है।
अतः
प्रभु के समान 
ही प्रभु प्रतिमा से भी
हमारा कल्याण होता है।
प्रभु की शांत मूर्ति के दर्शन से तथा उनके गुणगान में लीन होने से चित्त में दुष्ट भाव तथा बुरे विचार टिक नहीं सकते। श्री वीतराग देव की शांत मुद्रा के दर्शन के साथ ही रोम रोम में प्रेम उमड़े बिना नहीं रहता 
वीतराग देव की आराधना मुख्यतया उनकी प्रतिमा के द्वारा ही संभव है।
अरिहंत परमात्मा की भक्ति का सर्व श्रेष्ठ उपाय उनकी प्रतिमा की भक्ति करना है।
अरिहंत की प्रतिमा अरिहंत स्वरूप ही है।उनकी प्रतिमा के दर्शन करने से अपनी आत्मा का उपयोग भी अरिहंताकार बनता है।और अरिहंताकार उपयोग में लीन बनी आत्मा आरहंत्य  स्वरूप का साक्षात् अनुभव करती है।
रूपी आलंबन बिना अरूपी का ध्यान शक्य नहीं।
सर्वश्रेष्ठ रूपी आलंबन अरिहंत परमात्मा का है और उस आलंबन के लिए अरिहंत की प्रतिमा ही श्रेष्ठ उपाय है।
प्रतिमा सिर्फ प्रतिमा ही नहीं होती,वो स्वरूप ही होती है भगवान का। उसमें भगवान के गुणों का आरोपण किया जाता है।प्रतिमा को देखकर मन में वीतरागता के भाव जागृत होते हैं।
भगवान के गुणों का स्मरण तथा ध्यान करने करने के लिए जिन मंदिर में जिन प्रतिमा की स्थापना की जाती है।
श्री जिन की मूर्ति देखकर विचार पैदा होता है ,' अहो!यह मुख कितना सुन्दर है कि जिसके द्वारा किसी के लिए भी अपशब्द नहीं बोला गया,जिससे कभी हिंसक,कठोर अथवा कड़वे वचन नहीं निकले।उसमे रही जीभ से रसेंद्रिय के विषयों का कभी भी राग द्वेष से सेवन नहीं किया गया,परन्तु उस मुख द्वारा धर्मोपदेश देकर अनेक भव्य जीवों को इस संसार सागर से पार उतारा गया है।इसलिए ये मुख तो हजारों बार धन्यवाद का पात्र है।"
भगवान की नासिका द्वारा सुगंध या दुर्गंध रूप घ्रा नेंद्रिया के विषयों का राग अथवा द्वेष पूर्वक उपभोग नहीं किया गया।
इन चक्षुओं द्वारा पांच वर्ण रूप विषयों का पल भर के लिए भी राग द्वेष पूर्वक उपभोग नहीं किया गया।केवल वस्तु स्वभाव तथा कर्म की विचित्रता का विचार कर भगवान के नेत्र सदा समभाव में रहते हैं।
इन दोनों कानों के द्वारा विचित्र प्रकार की राग रागीनियो का राग पूर्वक श्रवण नहीं किया गया,अपितु मधुर अथवा कटु जैसे शब्दों को राग द्वेष रहित होकर सुना।
इस शरीर को किसी जीव की हिंसा अथवा अदत्त ग्रहण आदि का दोष नहीं लगा।इसका उपयोग केवल जीव रक्षा निमित्त तथा सभी को सुख मिले ,उसी ढंग से हुआ है ।इस देह ने गांव गांव विहार कर अनेक जीवों के सांसारिक बंधनों को तोड़ा है।तथा सभी कर्मो का क्षय करके केवल ज्ञान तथा केवल दर्शन को प्रगट किया है।
ऐसे अनंत उपकारी प्रभु की शांत मुद्रा देखकर अन्तःकरण में ये भावना उत्पन्न होती है इनकी यथा शक्ति भक्ति करना मेरा परम कर्तव्य है।यदि मैं प्रभु की भक्ति करती हूं तो मै स्वयं तिरने के साथ साथ अन्यों को भी तिराने में निमित्त बनूंगी क्योंकि मेरी भक्ति देखकर दूसरे लोग भी उसका अनुसरण करेंगें।
प्रतिमा के दर्शन होते ही नमो जिनानम बोलते हैं तभी से हमारे अंदर विनय गुण प्रगट होता है।
प्रभु के सामने जाते ही मन में भावना आती है हे प्रभु आप राजा थे, चक्रवर्ती थे फिर भी आपने सब त्याग दिया और मैं तुच्छ प्राणी हूं जो कुछ ना होते हुए भी आपके पथ पर नहीं चल पा रही हूं।प्रभु मै कब आप जैसी बनूंगी,कब संसार से भव भ्रमण समाप्त होगा।इस प्रकार
प्रभु तो अनेक गुणों से परिपूर्ण हैं और मै सभी प्रकार के दुर्गुणों से परिपूर्ण हूं इसी कारण इस संसार रूपी वन में अनंत काल से भटक रही हूं 
आज मेरे  भाग्योदय से मुझे भगवान की प्रतिमा के दर्शन हुए,प्रतिमा के दर्शन होते ही मन मयूर नाच उठता है,मन करता है कि वहां बैठकर प्रभु को निहारती रहूं और भगवान से बात करती रहूं,आंखो से प्रभु के प्रेम की अश्रु धारा बहती रहती है , हे प्रभु कब मेरे कर्म क्षय होंगे और कब मैं आप जैसी बनूंगी।
हे निरंजन!निराकार! निर्मोह!अजर!अमर!अकलंक! सिद्ध स्वरूपी! सर्वज्ञ!वीतराग!आपके गुणों का गुणगान करते हुए मै आपकी स्तुति करती हूं।
  आपकी स्तुति करते हुए मुझे अपने अवगुण समझ आए ।अब मैं अपने दुर्गुणों को छोड़ने का प्रयत्न करूं और आपके दिखाए पथ पर चलूं।
यह देवाधिदेव श्री वीतराग की मूर्ति है ,इनके अज्ञान आदि दोषों का नाश हो चुका है ,ये अनंत गुण वाले हैं।ये देवेंद्रो से भी पूजित हैं,तत्वों का उपदेश देने वाले हैं,मोक्ष की प्राप्ति उन्हें हो चुकी है,ये संसार सागर से तिर चुके हैं,सर्वज्ञ,सर्व - दर्शी हैं,दया के सागर हैं,परिषह तथा उपसर्गों की सेना को भगाने वाले हैं,रागादी से रहित हैं,ऐसा ज्ञान जैसे जैसे होता जाता है,वैसे वैसे प्रतिमा के दर्शन करते समय उन गुणों का ज्ञान तथा स्मरण दृढ़तर बनता जाता है।
इस प्रकार शुभ भाव से प्रतिमा के दर्शन स्तुति करते हुए जीव अपने अशुभ तथा क्लिष्ट कर्मों का नाश करता है। और समकित की शुद्धि होती है।
धन धन श्री अरिहंत ने रे,जेने ओलखाव्यो लोक सलुना। ए जिन ने दर्शन बिना र,जन्म गुमाव्यो फोक सालुना

आशा कोठारी
ग्वालियर

Wednesday, 3 June 2020

Anant kay lakshan

अनंतकाय के १२ लक्षण परिज्ञान

प्रश्न- अनत काय का क्या मतलब है ?
उत्तर- जिसमें एक छोटे से शरीर में अनंत जीव रहते हैं, प्रतिक्षण जन्मते मरते रहते हैं, वे अनंत काय के पदार्थ कहे जाते हैं ।

प्रश्न- छोटे शरीर से क्या आशय है ?
उत्तर- एक सूई की नोक पर आवे उतने अंश में असंख्य गोले (वृत) होते है, प्रत्येक गोले में असंख्य प्रतर होते हैं, प्रत्येक प्रतर में असंख्य शरीर होते हैं और उस छोटे से प्रत्येक शरीर में अनंत अनंत जीव होते हैं ।

प्रश्न - ये अनंतकाय क्या कंद मूल ही होते है ?   
उत्तर- कंदमूल तो अनंत काय होते ही है, इसके अतिरिक्त भी अनेक अनंतकाय होते है । 
यथा- १. जहाँ भी जिसमें भी, फूलण (काई) होती है, वह अनंतकाय है ।

२. जिस वनस्पति के पत्ते आदि किसी भी विभाग में दूध निकलने की अवस्था है जैसे- आकडे का पत्ता, कच्ची मुगफली (सिंग) आदि ।

३. जो कोई भी हरी तरकारी या वनस्पति का हिस्सा तोडने से एक साथ तट्ट ऐसी आवाज करते टूटे और सम कट जाय जैसे भींडी ककड़ी आदि।

४. जिस वनस्पति को गोलाकार चक्कु से काटने पर उसकी सतह पर रजकण सरीखे जलकण हो जाय ।

५. जिस वनस्पति की छाल भीतरी तने से जाडी हो वह तना अनतकाय ।

६. जिस पत्तों में नर्से न दीखें ।

७. जो कंद और मूल भूमि के अंदर पक कर निकलते हैं ।

८. सभी वनस्पति की कच्ची जड़े ।

९. सभी वनस्पति की कच्ची कौपल ।

१०. कोमल एवं नसे न दिखने वाली पंखुडियों वाले फूल ।

११. भीगाये हुए धान्यों में तत्काल निकले हुए  अंकुर।

१२. कच्चे कोमल फल यथा- इमली आदि, मंजरी आदि ।

इत्यादि लक्षण वनस्पति के किसी भी विभाग में दिखते हो वे सभी विभाग अनंत काय होते हैं । विशेष जानकारी एवं प्रमाण के लिये पुष्प ९
का वनस्पतिज्ञान सम्बन्धी परिशिष्ट देखना चाहिए अथवा पन्नवणा सूत्र का अध्ययन करना चाहिये ।

कंदमूल कुछ नाम इस प्रकार है- १ आलु २.रतालू ३.सूरणकंद ४.वज्रकद ५. हल्दी ६. अदरक 
७. कादा (प्याज) ८. लसण ९. गाजर १०.
मूला ११. अरबी १२. शकरकंद इत्यादि ।

SuParshwanath history

देवाधिदेव 7 वे तीर्थंकर श्रीसुपार्श्वनाथ भ.

श्री सुपार्श्वनाथजी के पूर्व भव
🥁1.धातकीखंड के पूर्व विदेह में सीता नदी के उत्तर तट पर सुकच्छ देश के क्षेमपुर नगर के राजा नंदीषेण ने गुरु अर्हंनंदन के पास दीक्षा ले कर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया।

2.राजा नंदिषेण का जीव सन्यास से मरण कर मध्यम ग्रैवेयक के सुभद्र नामक मध्यम विमान में अहमिन्द्र हुआ।

3 काशी देश की बनारस नगरी में महाराजा सुप्रतिष्ठ की रानी पृथ्वीषेणा के गर्भ में भाद्रपद शुक्ला 6 के दिन अहमिन्द्र का अवतरण हुआ।🥁

⛺️ तीर्थंकर भगवानों के गर्भ,जन्म,दीक्षा, केवलज्ञान,मोक्ष पांचो कल्याणकके अवसर  जगतके जीवो के लिए अत्यन्त कल्याणकारी और मंगलकारी होते हैं।समस्त देव और मनुष्य इन अवसरोंपर विशेष प्रकार का उत्सव आराधना करते है।⛺️

तीर्थंकर भ.श्री सुपार्श्वनाथका जीवन परिचय

💚जन्मस्थान:जम्बूद्वीप के भारतवर्ष सम्बन्धी काशी देशकी बनारस नगरी,पिता:इश्वाकुवंशी राजा सुप्रतिष्ठ,
माता:रानी पृथ्वीषेणा, मध्य ग्रेवेयक से अहमिन्द्र अवतीर्ण हुए,गर्भकल्याणक तिथि:भाद्रपद शु.6,गर्भनक्षत्र:विशाखा

🌟जन्मकल्याणक तिथि:ज्येष्ठ शु.12,जन्म नक्षत्र: विशाखा,  

  श्री सुपार्श्वनाथ भगवान का जन्म कल्याणक महोत्सव
 🌞श्री सुपार्श्वनाथजी के जन्म के समय तीनो लोकों में उद्योत, आनंद और सुख का प्रसार हुआ।अद्वितीय, सुन्दर, अपूर्व, अनुपम प्राकृतिक वातावरण में शीतल, मंद, सुगंधित वायु बहने लगी। पृथ्वी धन-धान्य से समृध्द हुई। प्रसन्न दिशामंडल, मनोहर आकाशमंडल में देव-दुंदुभि बजने लगी । वायुदेवने भुमंडल की शुध्दि की। मेघकुमारने गंधोदक की वृष्टि की। ऋतुदेवीने पंचवर्णी पुष्पोकी वर्षा की।

🌞स्वर्ग के इन्द्रों के आसन कंपायमान हुये। देवों के यहाँ घंटा,सिंहनाद, भेरी और शंख अपने आप बजने लगे। सभी देवोंने जिनबालक सुपार्श्वनाथ भगवानको नमस्कार किया और उनकी स्तुति की।

⭐️सौधर्म इंद्र की आज्ञा से सात प्रकार की देव सेना जन्म- नगरी बनारस में आई। सौधर्म इंद्र-इंद्राणी ने ऐरावत हाथी पर सवार होकर जन्मनगरी बनारस की 3 परिक्रमा की। सौधर्म और ईशान इंद्र ने क्षीर समुद्र के जल के 1008 कलशोंसे जिनबालक का अभिषेक महोत्सव किया। सौधर्म इंद्र ने हजारो नेत्रों से जिनबालक केसौम्य छवि का अवलोकन किया और भगवान का 'सुपार्श्वनाथ' नामकरण किया।

अन्य जानकारी:-
चिन्ह:स्वस्तिक,आयु:20 लाख पूर्व, 
कुमारकाल:5लाखपूर्व,राज्यकाल:14 लाख पूर्व+20पूर्वांग,
शरीर ऊंचाई:200 धनुष, शरीर वर्ण:हरित, चिन्ह:स्वस्तिक

💙वैराग्यकारण:ऋतु परिवर्तन पतझड़,
दीक्षा कल्यांणक तिथी ज्येष्ठ शु.12, दीक्षा समय:पूर्वाह्न, नक्षत्र:विशाखा,दीक्षा वन:सहेतुक,दीक्षावृक्ष:श्रीष,
दीक्षोपवास: 2(बेला), दीक्षाकाल:पूर्वाह्न,
सहदिक्षित मुनि:1000, दीक्षा पालखी:सुमनोगति, दीक्षास्थान:काशी,प्रथम आहार दाता:महेन्द्रदत्त,
प्रथम आहार का स्थान:सोमखेट नगर,छद्मस्थकाल:9 वर्ष

🌳तीर्थंकर भगवान का दीक्षा कल्याणक महोत्सव🌳


🌲ब्रह्म स्वर्ग से देवर्षि लौकांतिक देवोंने मर्त्यलोक में आकर तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ भगवान के वैराग्य की सराहना की।

🌴 चारों निकाय के देवों ने क्षीर समुद्र के जल से जिनराज सुपार्श्वनाथका दीक्षाभिषेक किया।
स्वर्ग से देवगणों द्वारा लायी सुमनोगति पालकी पर  जिनराज आरूढ़ हुए और जन्मनगरी बनारस के पास दीक्षा वन सहेतुक तक मनुष्य, विद्याधर, देवतागणने विशेष उत्सव पूर्वक पालकी को अपने कंधेपर रखकर जिनराज को लाया ।

🌿 तीर्थंकर प्रभु ने दीक्षा वन में रखी चंद्रकांतमणि की शिला पर विराजमान हो कर अपने वस्त्र-आभूषणों का त्याग किया , सिध्द परमेष्ठी को नमस्कार कर पंचमुष्ठी केशलोंच किया, सर्व प्रकार के सावद्य-पाप का त्याग कर परम सामायिक चारित्र को धारण किया, व्रत समिति गुप्ति आदि चारित्र के भेदों को धारण कर कुछ दिनों के उपवास के साथ श्री सुपार्श्वनाथ योगारूढ़ हुए।

☘️सौधर्म इंद्र ने भक्ति-भाव से तीर्थंकर के केशों का क्षीर समुद्र में विसर्जन हुआ। देवगण ने तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ की पूजा- भक्ति की।वे अपने- अपने स्वर्ग को लौटे।

🍀दीक्षा धारण करते ही तीर्थंकर प्रभु को मनःपर्ययज्ञान की उपलब्धि हुई, तपोबल से अनेक ऋद्धियों की एकसाथ प्राप्ति हुई। प्रभु सुपार्श्वनाथ केवलज्ञान होने तक परीषहों और उपसर्गों को मौन रहकर सहज भाव से सहन करते हुए बाह्य और अंतरंग तपानुष्ठानोंमें अनुरक्त हुए

🌱तीर्थंकर प्रभु आत्म साधना की गहन भूमिका को प्राप्त कर समाधिस्थ हो कर केवल्योपलब्धि से विभूषित हुए।
🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸

ज्येष्ठ सुदि बारस में जन्मे, सुरपति आसन कंपे।
देवगृहों में सबविध बाजे, स्वयं स्वयं बज उठते।।
जन्म न्हवन उत्सव विधिपूर्वक किया इंद्र सुरगण ने।
जन्मकल्याणक पूजा करते परमानंद हो क्षण में।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लाद्वादश्यां श्रीसुपार्श्वनाथजन्मकल्याणकाय
नमः अर्घ्यं.......
⭐️⭐️⭐️⭐️⭐️⭐️⭐️⭐️

ऋतु परिवर्तन देख विरक्ति ज्येष्ठ सुदि बारस मैं।
मनोगती पालकि सुर लाये प्रभु बैठे उस क्षण में।।
इंद्र सहेतुक वन में पहुँचे, प्रभु ने केश उखाड़े।
नमः सिद्ध कह दीक्षा धारी, पूजत कर्म पछाड़े।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लाद्वादश्यां श्रीसुपार्श्वनाथदीक्षाकल्याणकाय
नमः अर्घ्यं.........
🌳🌲🌳

💛केवलज्ञान तिथि:फाल्गुन कृष्णा षष्ठी  यक्ष:विजय,यक्षी:पुरुषदत्ता

❤️मोक्ष कल्याणक तिथि:फाल्गुन कृष्णा सप्तमी, मुक्तिस्थान:श्री सम्मेद शिखरजी।

Mahabalipuram

...........*जिनालय दर्शन*........... *महाबलीपुरम तीर्थ* लॉकडाउन के चलते हमारी कोशिश है कि प्रतिदिन आपको घर पर प्रभु दर्शन करा सकें। आज हम आप...