बाह्यतप
जिस तप की साधना शरीर से सम्बन्धित हो या जिससे शरीर का कर्षण हो जाने से इन्द्रियों का दमन या मर्दन हो वह बाह्यतप है अथवा
दूसरों को दिखने में आने वाले तप बाह्य तप हैं ।
१. अनशन
सामान्य अर्थ क्षुधा पर विजय
सब प्रकार के आहारो (अशन - अन्न), पान, खाद्य, स्वाद्य) या पान को छोड़कर तीन प्रकार के आहार का त्याग इत्वरिक (काल की मर्यादा युक्त अनशन) काल के लिए अथवा
यावत्कथिक (जीवनपर्यन्त) के लिए किया जाने वाला तप अनशन तप है।
कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा में भी उपर्युक्त आशय स्पष्ट किया गया है । इत्वरिक व यात्वकथिक तप के भी क्रमशः छः तथा दो भेद हैं। अतः इस तप का उद्देश्य निर्ममत्व भाव उत्पन्न कर आत्मसल्लीनता की ओर बढ़ना है।
२. ऊनोदरी (अवमौदर्य )
आहार, उपधि और कषाय को न्यून करना
ऊनोदरी तप है। भगवती आराधना के अनुसार अवम-न्यून (कम मात्रा में आहार
करने वाला) उदर है जिसका वह अवमोदर तथा अवमोदर के भाव एवं कर्म को
अवमौदर्य कहते हैं। भोजन की न्यून से न्यूनतम मात्रा ग्रहण करना ऊनोदरी तप है और यह द्रव्य व भाव के भेद से दो प्रकार का है।
३. भिक्षाचरी - समवायांगसूत्र में इसे वृत्तिसंक्षेप नामक तृतीय तप माना है। धवला के अनुसार भोजन, पात्र, घर, मुहल्ला इन्हें वृत्ति कहते हैं। इस वृत्ति का परिमाण, नियंत्रण, ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान है। द्रव्य, क्षेत्र, काल
और भाव से यह तप चार प्रकार का कहा गया है।
४. रस-परित्याग
आस्वादन रूप क्रिया का नाम रस है। पांच विगय
तथा षष्ठ रसों का पूर्णतः त्याग करना रसपरित्याग तप है। ब्रह्मचर्य व्रताराधक के
लिए प्रकाम (रसों का यथेच्छ उपभोग) भोजन एषणीय नहीं है। अत: इस तप से आहार की लालसा या कामना सीमित होती है तथा अप्रमत्तता का विकास होता है।
५. कायक्लेश - सहिष्णुता का विकास अर्थात् कर्मनिर्जरार्थ स्वेच्छापूर्वक धूप, शीत, वर्षा, कायोत्सर्ग, भिक्षु की बारह प्रतिमाएं धारण करना, केशलोच, ग्रामानुग्राम विचरण, भूख-प्यास आदि के कष्ट या बाधाओं को सहना तथा चिरकाल तक स्थिरासनादि का अभ्यास करना कायक्लेश तप है। भगवती
आराधना तथा मूलाचार९३ में भी इसी आशय का वर्णन प्राप्त होता है ।
६. प्रतिसंलीनता
आत्मा की सन्निधि में रहना अर्थात् इन्द्रय, शरीर,
मन और वचन से विकारों को उत्पन्न न होने देकर उन्हें आत्म स्वरूप में संलीन करना अथवा कर्मास्रव के कारणों का निरोध करना प्रतिसंलीनता है। औपपातिकसूत्र
में इन्द्रिय, कषाय, योग और विविक्त शयनासन रूप में प्रतिसंलीनता के चार भेदों
का उल्लेख किया गया है।
इस प्रकार इन बाह्य तपों के आचरण से देहाध्यास छूट जाता है क्योंकि
देहासक्ति साधना का विघ्न है । देह के प्रति ममत्व का त्याग ही इन तपों का
लक्ष्य है तथा आभ्यन्तर तप की सिद्धि के लिए भी ये दृढ़ व प्रशस्त भूमिका का
निर्माण करते हैं।
क्रमशः....
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