Thursday, 21 May 2020

5 samiti 3 gupti

पांच समिति व तीन गुप्ति

श्रमण धर्म निवृत्तिप्रधान है किन्तु दैनिक जीवन चर्या हेतु प्रवृत्ति का आश्रय लिया जाता है। साधक उन प्रवृत्तियों को अप्रमत्तता तथा यत्नपूर्वक अहिंसक रूप से जिए, इसलिए पांच समिति तथा तीन गुप्तियों का प्रावधान किया गया है अथवा पूर्वोक्त महाव्रतों के रक्षण, संवर्द्धन एवं उनकी परिपुष्टि के लिए पांच समिति, तीन गुप्ति का आराधन आवश्यक है। ये आठ गुण श्रमणत्व का माता की तरह रक्षण करते हैं, इसलिए इन्हें अष्ट-प्रवचन माता कहा गया है।

माता शब्द के संस्कृत में दो रूप हैं माताः और मातरः। अतः वृत्तिकार के
शब्दों में इन (५ समिति + ३ गुप्ति) आठों से प्रवचन का प्रसव होता है अथवा
इन आठों में सारा प्रवचन समा जाता है, इसलिए इन्हें प्रवचन माता कहा जाता
है। पहले में मां का अर्थ है और दूसरे में 'समाने' का अर्थ है। अतः इन अष्ट प्रवचन माताओं में सम्पूर्ण द्वादशाङ्गी समाविष्ट है ।
उत्तराध्ययन निर्युक्ति में प्रवचनमात और 'प्रवचनमाता' तथा मूला-राधना और मूलाराधना दर्पण में 'प्रवचनमाता' शब्द प्राप्त होते हैं ।

समिति
समिति का अर्थ - सम्यक्-प्रवर्तन या अहिंसा से संवलित प्रवृत्ति अर्थात् संयमी क्रियाएं विवेकपूर्वक संपादित करना समिति है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार समितियाँ आचरण की प्रवृत्ति के लिए हैं। प्रतिक्रमणसूत्र के वृत्तिकार आचार्य नेमि के शब्दों में - प्राणातिपात प्रभृति पापों से निवृत्त रहने के लिए प्रशस्त एकाग्रतापूर्वक की जाने वाली आगमोक्त सम्यक् प्रवृत्ति समिति है ।

 समितियाँ पांच हैं।
- १. ईर्या (गमन), २. भाषा, ३, एषणा (विशुद्ध आहार की खोज
रूप-याचना), ४. आदान निक्षेपण तथा ५. उच्चारादि- प्रतिस्थापन।

१. ईर्या समिति - ईर्या का सामान्य अर्थ है गमनागमन सम्बन्धी अहिंसा
ईरणमीर्या गतिपरिणामः, समिति से सीमित होकर, यत्नपर्वक अर्थात् गमन विषयक सत्प्रवृत्ति 'ईय्या समिति है अथवा सर्व प्राणियों की रक्षा करते हुए आवागमन की क्रिया करना ईर्या समिति है । श्रमण को चार हाथ (युग
का विवेक परिमाण शरीर, परिमाण या जुआ परिमाण) आगे की भूमि देखकर यतनापूर्वक
चलना चाहिए तथा दिन में ही चलोे, रात्रि में न चले क्योंकि निशाकाल में आवागमनादि क्रियाओं से जीव हिंसा होगी। विशुद्धि मग्ग तथा अष्टांगहृदय में भी भिक्षु को 'युगमात्रदर्शी' कहा है। अतः मुनि बोलते, हंसते, पढ़ते, चिन्तन करते, दबदब करके भागते हुए न चले अपितु आलम्बन, काल, मार्ग और यतना से परिशुद्ध, एकाग्रचित्त, अनिमेष (मात्र चलने में लक्ष्य रखकर) अहिंसक वृत्ति से गमन करे।

२. भाषा समिति
वाणी की सम्यक् प्रवृत्ति अथवा भाषा संबंधी भाषा विवेक को भाषा समिति कहते हैं । प्रज्ञावान श्रमण सदोष, कर्मबन्धकारी, कर्कश,
अप्रिय, निष्ठुर, अनर्थकारी, परिताप व आघात युक्त भाषा का त्याग करे तथा विवेकपूर्वक, अप्रमत्तता से प्रमाण, नय-निक्षेप युक्त हित, मित, असंदिग्ध, प्रिय, मधुर, सत्य भाषा का प्रयोग करे। 

भगवान महावीर ने मुनि के लिए भाषा के आठ स्थानों-क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, मुखरता और विकथा का निषेध किया है।
दशवैकालिकसूत्र में अव्यक्तव्य सत्य भाषा का भी निषेध किया है ।

३. एषणा समिति
जीवन-निर्वाहक आवश्यक उपकरणों का अहिंसक विवेक भी एषणा है अथवा एषणा का सामान्य अर्थ है 'चाह' या आवश्यकता' अर्थात् जैविक आवश्यकताएं आहार, स्थान आदि के ग्रहण व उपभोग सम्बन्धी शुद्धता व जीव रक्षा का, विवेक अथवा यतना रखना एषणा समिति है।
एषणा का द्वितीय अर्थ खोज या गवेषणा भी है अर्थात् आहार, पानी, आदि की शुद्धतापूर्वक सम्यक् खोज या गवेषणा ग्रहणैषणा और परिभोगैषणा करना एषणा समिति है। आहार से सम्बन्धित उद्गम आदि बयालीस (४२) दोष
तथा ग्रहणैषणा के दोषों को मिलाकर (कुल सैंतालिस दोष) बुभुक्षा प्रतीकारार्थ
समभावपूर्वक विशुद्ध आहार ग्रहण करना एषणा समिति है। मूलाचार में आहार संबंधी छियालिस दोषों का उल्लेख है ।इनसे रहित होकर आहार करना एषणा समिति है।

४. आदान-निक्षेपण समिति- पदार्थों के व्यवहरण संबंधी विवेक अर्थात् श्रमण धर्म साधना में सहायक ओघ उपधि और औपग्रहिक उपधि को लेने और रखने में सम्यक्तया चक्षु से देखकर प्रमार्जनापूर्वक लेना, रखना और सम्यक्
उपयोग करना आदान निक्षेपण समिति है ।"

५. उच्चार प्रस्रवण समिति (उत्सर्ग समिति) - उत्सर्ग संबंधी अहिंसात्मक यतना अर्थात् शरीर (वपु) नीहारिक मलों को जीव-जन्तु रहित, दूरस्थ मर्यादित, आवागमन रहित एकांत उचित स्थान में सूक्ष्मता से निरीक्षण कर उत्सर्ग करना
उच्चार-प्रस्रवण समिति है।
दशवैकालिकसूत्र में आहार व जल की उत्सर्ग
विधि का भी उल्लेख प्राप्त होता है। अतः श्रमण मल, मूत्र, कफ, नासिका व शरीर का मैल, अपथ्याहार, अनावश्यक जल, अनुपयोगी वस्त्रादि इन अपरिहार्य वस्तुओं का लोकापवाद से बचकर, महाव्रतों की रक्षार्थ विवेकपूर्वक यतना से उत्सर्जन करे।
अतः उपर्युक्त समितियाँ चारित्र की प्रवृत्ति के लिए प्रतिपादित की गई हैं। तथा ये साधना का विधेयात्मक पक्ष प्रस्तुत करती हैं तथा अन्य धर्मों में भी जैन परम्परा के समान समिति शब्द तो व्यवहृत नहीं हुआ, किन्तु उसका आशय
स्वीकृत किया गया है। अतः इन पांच समितियों का पालन करने वाला श्रमण जीवाकुल संसार में रहता हुआ भी पाप से अलिप्त रहता है।

गुप्ति -
गुप्ति का शाब्दिक अर्थ है
रक्षा। गुप्ति शब्द गोपन से निष्पन्न हुआ है,
जिसका अर्थ है खींच लेना या दूर करना। प्रथम अर्थानुसार सावद्ययोगेभ्य आत्मनो गोपनं गुप्तिः अर्थात् सदोष प्रवृत्ति से या अशुभता से आत्मा की रक्षा करना गुप्ति है। द्वितीय अर्थानुसार गोपनं गुप्तिः सम्यक् योग निग्रहः अर्थात् मन,
वचन और काया की सावद्य क्रियाओं या मन, वचन और काया को अशुभ प्रवृत्तियों तथा अशुभ विषयों से हटा लेना, विसर्जन या निवृत्ति करना गुप्ति है। गुप्तियाँ मन, वचन, काय गुप्ति के भेद से तीन प्रकार" की कही गई हैं-

१. मनोगुप्ति - असत् चिन्तन से मन का निवर्तन या संवर ही मनोगुप्ति
है अर्थात् अप्रशस्त, कुत्सित तथा अशुभ विचारों से मन को निवृत्त करना मनोगुप्ति है अथवा श्रमण द्वारा सरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त मन का निग्रह मनोगुप्ति है।अतः श्रमण को अखण्डित साधना के लिए दूषित वृत्तियों
से निवृत्त रहना चाहिए।

२. वचन-गुप्ति - असत् वाणी से निवर्तन उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार संरंभ, समारंभ व आरम्भ में प्रवृत्त वचन निवर्तन को वाक्-गुप्ति कहते हैं l

नियमसार में  स्त्री-कथा, राजकथा, चोर (स्तेन) कथा, भोजन-कथा (भत्तकथा) आदि वचन की अशुभ प्रवृत्ति एवं असत्य वचन के परिहार को वचनगुप्ति कहा है। अतः श्रमण को वचन गुप्ति रक्षार्थ, असत्य, कर्कश, मर्मकारी, अहितकारी
एवं हिंसाकारी भाषा का वर्जन या त्याग करना चाहिए।

३. काय गुप्ति
असत् प्रवृत्ति से निवर्तन उठने बैठने, लेटने, नाली
आदि उल्लंघन में विवेक तथा पांचों इन्द्रयों की प्रवृत्ति में शरीर की क्रियाओं का नियमन काय गुप्ति है।
नियमसार में बन्धन, छेदन, मारण, आकुंचन तथा
प्रसारण आदि शारीरिक-क्रियाओं से निवृत्ति को कायगुप्ति कहा गया है ।

संक्षेप में राग-द्वेष से निवृत्ति मनोगुप्ति, असत्य वचन से निवृत्ति (मौन) वचन गुप्ति तथा शारीरिक-क्रियाओं से निवृत्ति या कायोत्सर्ग कायगुप्ति है।

इस प्रकार श्रामण्य रूप पंच महाव्रतों की सुरक्षा के लिए रात्रि-भोजन की निवृत्ति, अष्ट-प्रवचन माताओं में जागरूकता, भावना (संस्कारापादन - एक ही प्रवृत्ति का पुनः पुनः अभ्यास इसका वर्णन यथा स्थान किया जायेगा) आदि का
निर्विघ्न सापेक्षयुक्त परिपालन सम्पूर्ण श्रमणाचार का प्रथम व अनिवार्य अंग है।

पांच समिति व तीन गुप्ति से अगुप्त श्रमण चौदहपूर्वी होकर भी अज्ञानी है। अतः संयम में स्थिरता, विशुद्धता, शुभता तथा असंयम या आश्रव निवृत्ति ही उक्त प्रवचन माताओं का हार्द है।

No comments:

Post a Comment

Mahabalipuram

...........*जिनालय दर्शन*........... *महाबलीपुरम तीर्थ* लॉकडाउन के चलते हमारी कोशिश है कि प्रतिदिन आपको घर पर प्रभु दर्शन करा सकें। आज हम आप...