वीर प्रभु के शासन की स्थापना :-
जृंभिका नगरी के बाहर, ऋजुवालिका नदी के तट पर, शामक नामक गाथापति के क्षेत्र में, शालवृक्ष के नीचे, छट्ठ तप करते हुए छट्ठ के दूसरे दिन, हस्तोतरा नक्षत्र में, वैशाख सुद १० को, दिन के चौथे प्रहर में, प्रभु वीर को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई,परंतु हुंडा अवसर्पिणी अच्छेरा रुपे, वह प्रभु की प्रथम देशना निष्फल हुई ।
दूसरे दिन, (आज ही के दिन) वैशाख सुद ११ को, अपापापुरी नगरी के बाहर, महासेन नामक उद्यान में, समवसरण में, प्रभु ने फिर से दूसरी देशना दी ।
गणधर पद उन्हें दिया जाता है जो प्रभु की देशना को एक सुत्र में बांध कर द्वादशांगी यानि द्वादश यानि १२ अंग आगमों की रचना करते है, और यह गणधर, अलग अलग तरिके से विचार कर,प्रभु की देशना को गूंथते है । एक वांचना वाले साधुओं के समुदाय को गण के स्वरुप से, हम जानते है।
इसी अपापानगरी में ही सोमिल नामक ब्राह्मण ने यज्ञ का आयोजन किया था जहां, यह ११ विप्रकुमारों को, यज्ञकर्म में विचक्षण होने हेतु, आमंत्रित किया था ।
प्रभु की देशना को श्रोत करने और उनके दर्शन करने खातिर, आकाश मार्गे, कई देवतागण भी वहां पधार रहे थे, जिन्हें देखकर, इन्द्रभूति को अपने यज्ञ कराने की प्रणाली पर गर्व हुआ कि देवता यज्ञ हेतु पधार रहे है पर, वहां उन्हें रुकते नहीं देख, और आगे बढ़ते समवसरण की और जाते देख, और लोगों को कहते सुन कि अतिशय-युक्त सर्वज्ञ पधारे है और सब वहीं जा रहे है, उन्हें क्रोध हुआ कि ऐसा कौन सा अतिशयसहित सर्वज्ञ यहां आया है, मैं अभी जा कर, उस पाखंडी का दंभ, जिसमें देवता भी, मुग्ध हो चुके है, उस के सर्वज्ञरुपी घमंड को सभी के सामने, हर लेता हूँ ।
यह सोचकर अहंकार धारण किये इन्द्रभूति अपने ५०० शिष्यों समेत समवसरण पहुंचे, और प्रभु वीर के समवसरण संरचना देख पहले आश्चर्यचकित हुए । प्रभु ने उन्हें उनके गौत्र व नाम से बड़े प्रेम से पुकारा कि "है गौतम, इन्द्रभूति, आपका स्वागत है"।
वह और भी आश्चर्य पामे पर सोचें कि, मैं इतना विद्वान मेरे बारे में तो कोई भी जान सकता है । पर जो यह मेरे मन में चल रहे संशय को, कि जीव(आत्मा) है कि नहीं ? पहचान कर उसका समाधान करें तो मैं मानूं । और बस, प्रभु वीर ने तुरंत, उस संशय को समझ कर इन्द्रभूति को समाधान देते हुए कहा कि "है विप्र, जीव (आत्मा) है कि नहीं ?, यही संशय तुम्हारे ह्रदय में है । लेकिन है गौतम, जीव है, और यह चित्त, चैतन्य, विज्ञान और संज्ञा वि. लक्षणो से जाना जा सकता है । यदि जीव ना हो तो पुण्य-पाप का पात्र कौन ? और तुझे यह यज्ञ, दान करने की भी क्या जरुरत ?
बस, प्रभु के इन वचनों को सुनकर इन्द्रभूति का घमंड चुरचूर हो गया, मिथ्यात्व के साथ संदेह को छोड़ दिया और बोलें कि, "हे स्वामी, ऊंचे वृक्ष का नाप लेने के लिये, मैं, नीचा पुरुष, दुर्बुद्धि, आपकी परिक्षा लेने आया था । मैं दोषयुक्त हूँ, फिर भी आपने मुझे प्रतिबौधित किया है, कृपा करके आप मुझे संसार से विरक्त बने, ऐसे मुझको दिक्षा देकर, अनुग्रहित करें ।
और ऐसा कह, इन्द्रभूति जी ने, ५० वर्ष के गृहस्थावस्था के बाद, तब जब प्रभु वीर की आयु का ४२ वा वर्ष चल रहा था, तब, संसार त्याग, अपने ५०० शिष्यों समेत, दिक्षा ग्रहण की ।
जगतगुरु, प्रभु वीर ने भी, यह जानकर कि, इन्द्रभूति मेरा पहला गणधर होगा, स्वयं ही दिक्षा का दान दिया ।
इन्द्रभूति विप्र ५०९ शिष्यों समेत, प्रभु वीर से दिक्षित हो, वैशाख सुद ११ के दिन, गौतमस्वामी कहाये ।
इनके बाद, क्यों नहीं इन्द्रभूति आये और अभिमान समेत कौतुहलवश, मन में अपना संशय धारण किये, कि, ""कर्म और कर्मफल है कि नहीं,"" अग्निभूति भी समवसरण की और चल दिये।
प्रभु ने दूसरे गणधर, अग्नगभूति की शंका का भी समाधान किया, और ऐसे ही क्रमश: बाकी के नौ विप्र भी प्रभु से मिलने एक के बाद एक अपने शिष्यगण के साथ गये और सभी ११ विप्र प्रभु वीर के हाथों उनके शिष्यों समेत दिक्षित हुए, कुल ४४११ दिक्षित हुए ।
सभी ११ गणधरों की शंका इस प्रकार थी ।
१) गौतमस्वामी .. (जीव) आत्मा है कि नहींं ?
२) अग्निभूति .. कर्म और कर्मफल है कि नहींं ?
३) वायुभूति .. जीव और शरीर दो भिन्नरुफ है कि एकरुप है ?
४) व्यक्त स्वामी .. जगत मिथ्या है या फदार्थो सत्य है ?
५) सुधर्मा स्वामी ... यह भव है वैसा ही परभव है कि अन्यथा है ?
६) मंडित .. जीव को बंध-मोक्ष है कि नहींं ?
७) मौर्यपुत्र ... स्वर्ग है कि नहींं ?
८) अकंपित .. नरक है कि नहींं ?
९) अचलभ्राता .. पुण्य-पाप है कि नहींं ?
१०) मेतार्य .. परलोक.. पुनर्जन्म है कि नहींं ?
११) प्रभास स्वामी .. मोक्ष है कि नही ?
इन सारी शंकाओं का प्रभु वीर ने समाधान किया था ।
बाद में चंदना जी भी दिक्षित हो प्रवर्तिनी बनें दूसरी कन्याओं सहित और फिर नरनारीओं को श्रावक और श्राविका पणे स्थित कर के, प्रभुने उस दिन, चतुर्विध संघ की, स्थापन की, यानि प्रभु वीर का जिनशासन काल तब से, वैशाख सुदी ११ के दिन, दूसरी देशना के दिन से, शुरु हुआ।
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