संक्षेप में अष्ट प्रकारी जिनपूजा का सार
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जिन पूजा करने वाला जीव, अपनी आत्मा के उद्धार के लिए परम तारक परमात्मा को केंद्र स्थान में लाता हैं और विविध प्रकार से परमात्मा से जुडने का प्रयास करता हैं ।
योगीश्वर प्रभु का प्रक्षालन करते हुए भावना भाता हैं कि "मेरी आत्मा पर से कर्म रूपी मैल दूर हो और आत्मा निर्मल/साफ बने ।"
परम करूणानिधान को चंदन का लेप लगातें हुए भावना भाता हैं कि "प्रभु राग द्वेष रूपी अग्नि को नाश कर जैसे आपने परम शीतलता पायी वैसे ही मैं भी पाऊँ ।"
पुष्प अर्पण करते भावना भाता हैं कि "सर्वपाप से मुक्त ऐसे अरिहंत प्रभु को हृदय कमल में स्थापित कर, अरिहंत प्रभु का शरण स्वीकार कर, निर्मल सम्यग् दर्शन को प्राप्त करूँ ।"
धूप करते हुए भावना भाता हैं कि "आत्म ध्यान की घटा ज्वलंत बने, मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्र रूपी दुर्गंध दूर हो और आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रगट हो ।"
दीप पूजा करते साधक का मन कहता हैं कि " प्रभु आपके भाव दीपक का स्मरण कराता यह द्रव्य दीपक मेरे दुःख को, राग द्वेष को नाश करे और मेरे अंतर के ज्ञान दीप को प्रगट करे जिससे लोक और अलोक प्रकाशित होता हैं ।"
अक्षत(चावल) की पूजा श्रावक के संकल्प के लिए हैं कि "जैसे अक्षत दुबारा उगता नही उसी प्रकार मुझे भी अब आगे भव नही करना हैं और अक्षय सुख को अक्षय अवस्था को पाना हैं ।"
नैवेद्य(आहार) पूजा करते उपासक प्रभु से कहता हैं कि "प्रभु इस रसना की लालच में अनंत भव किये हैं और अंतराल में बहुत ही कम समय के लिए बिना आहार की वृत्ति(अनाहारी) के भी रहा पर वह अवस्था temporary थी अस्थायी थी, अब मुझे अनंतकाल वाला, permanent अनाहारीपना चाहिए ।"
फल पूजा करता जिनभक्त प्रभु से कहता हैं कि "प्रभु जैसे बीज का अंतिम रूप फल हैं, वैसे ही आत्मा में रहे हुए रत्नत्रय के बीज अपनी चरम सीमा को प्राप्त करें, अंतिम अवस्था को प्राप्त करे, मोक्षफल को प्राप्त करें ।"
इस प्रकार नित्य सम्यक् भावना भाने के कारण जिन पूजा करने वाले जीव के कषाय धीरे धीरे मंद होते जाते हैं, लक्ष्य का सतत भान रहता हैं और अनाचार से अटकने की कड़ी मेहनत चालू होती हैं ।
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