श्री अनाथी मुनि*
मगध के सम्राट श्रेणिक बिंबिसार अश्व पर सवार होकर सैन्य सहित वनविहार के लिए निकल पड़े थे ।वे जब मंडिकुक्षि नामक उद्यान में आये , तब वृक्ष के तले पद्मासन लगाकर बैठे हुए ध्यानस्थ मुनि पर उनकी दृष्टि गई ।मुनिराज की प्रसन्न मुखमुद्रा ,तेजस्वी कपाल एवं रमणीय रुप देखकर श्रेणिक आश्चर्यचकित हुए ।
वे मन ही मन सोचने लगे कि सांसारिक जीवन का ऐसा तो कौन सा हृदयविदारक एवं आघातजनक अनुभव होगा कि जिसके कारण उन्होंने युवावस्था का आनंद मनाने-भोगने की बनिस्बत साधुत्व का त्यागमय पथ ग्रहण किया होगा ?
मगधनरेश ने प्रणाम करके मुनिराज से पूछा , " मुनिराज , मेरे मन में जाग उठी जिज्ञासा का आप समाधान करें ऐसी बिनंती है ।जवानी के महके हुए बसंत में संसार के सुखों को छोड़कर आपने किसलिए तप-त्याग से पूर्ण दीक्षा ग्रहण की ? ऐसी कंचनवर्णी काया, तेजस्वी तरुण अवस्था एवं मनहर चेहरा देखकर मेरे मन में प्रश्न उठा है कि आपने उभरती -उमड़ती जवानी में ही संसार ,संपत्ति एवं प्रियजनों का परित्याग क्यों किया ? "
मुनिराज ने स्नेहसभर स्वर में कहा , " हे राजन , इस संसार में मैं बिल्कुल अनाथ था ।मुझे बचानेवाला रक्षक या घनिष्ठ मित्र कोई नही था ।ऐसी अनाथ दशा के कारण ही मैने संसार का त्याग किया ।"
श्रेणिक ने अट्टहास्य करते हुए कहा , " अरे , मुनिवर,यदि आप ऐसी अनाथ दशा का अनुभव करते हों तो मैं आपका नाथ बनूंगा।साथ ही मुझ जैसा सम्राट आपका नाथ बनेगा यानी आपको घनिष्ठ मित्र , परम स्नेहीजन, निकट के सगे-साई और खड़े पग रहनेवाले लोग प्रत्यक्ष ही प्राप्त हो जायेंगे।उनके संग रहकर आप सुख-चैन से सत्ता,संपत्ति,सामर्थ्य और सौंदर्य सबकुछ भोग सकेंगे ।संसार का कोई भी सुख अप्राप्य नहीं होगा ।मुनिजी ! चलिए, अब मैं आपका नाथ हूं ।ऐसी भरी-पूरी जवानी में ली हुई साधुता का त्याग करके मेरे विशाल राज्य में पधारिए । "
सम्राट की इस बात के प्रत्युतर में मुनिराज ने कहा , " हे मगधराज ! जब आप स्वयं अनाथ हैं ,तो फिर मेरे नाथ कैसे बन सकेंगे ? आप की तरह ही बेशुमार संपत्ति एवं समृद्धि मेरे पास थी , परंतु एक बार मेरी आंखों में पीड़ा उत्पन्न हुई और शरीर के प्रत्येक अंग में आग-सी लग गई,तब अनेक निपुण वैद्याचार्य , पिता की सारी संपत्ति या माता का माधुर्यपूर्ण वात्सल्य मेरी पीड़ा कम नही कर पाये ।समस्त सिंगार का त्याग करनेवाली पतिपरायण मेरी पत्नी अथवा मेरे अपने भाई-बहन भी सांत्वना देने और रुदन करने के सिवा कुछ भी न कर सके ।ऐसी थी मेरी अनाथता !
" उस अनाथता को दूर करने के लिए और उस वेदना से मुक्त होने के लिए मैंने सर्व वेदनाशक ऐसी दीक्षा ग्रहण करने का विचार किया।जिस रात को मैंने ऐसा संकल्प किया कि मैं अच्छा हो जाऊंगा तो यह संसार त्याग दूंगा, उस रात्रि के गुजरने के साथ-ही-साथ मेरी वेदना भी कम होने लगी।प्रात:काल में तो बिलकुल रोगमुक्त हो गया ।दीक्षा अंगीकार करके निकले हुए मुझ जैसे अनाथ को भगवान महावीर जैसे सच्चे नाथ मिल गये । "
अनाथी मुनि के उपदेश से प्रभावित होकर राजा श्रेणिक प्रभु महावीर की शरण प्राप्त करने के लिए चल पड़े और अनाथी मुनि अपने पथ की ओर आगे बढ़े ।
अनाथी मुनि का चरित्र यह उजागर करता है कि संसार के दु:ख-दर्द भोगता हुआ व्यक्ति भले ही अनेक स्नेही तथा समृद्धि का धारक हो ,तथापि वस्तुत: वह अनाथ है ।अपनी अनाथ स्थिति को दूर करनेवाला और सोयी हुई आत्मा को जगानेवाला गुरु मिलते ही व्यक्ति सच्चा सनाथ बनता हैं ।शास्त्र कहते हैं कि आत्मसंधान की अंतिम सीमा में पहुंचकर अनाथी मुनि सदाकाल सनाथ दशारुप सिद्धिपद से संलग्न हुए ।
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साभार: जिनशासन की कीर्तिगाथा
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